Book Title: Jinabhashita 2002 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ - प्रयोग मिट्टी, पानी, धूप, हवा, आकाश, मालिश, व्यायाम, आसन, | प्रोत्साहित करती है। औषधियों से स्वास्थ्य मिलता तो दवा निर्माण प्राणायाम, ध्यान आहार तथा विश्राम द्वारा रोग का उपचार किया | करने वाले, दवा लिखने वाले तथा दवा बेचने वाले खूब स्वस्थ मट्टी, पानी, धूप, हवा को दवा समझना भूल | होते। स्वास्थ्य पर भी पूँजीपतियों का एकाधिकार होता। तथा भ्रम है। ये पंच महाभूत शरीर के विकारों को हटाकर जीवन अच्छा स्वास्थ्य एवं सौदर्य मिलता है प्राकृतिक योगमय शक्ति को बढ़ाते हैं। आदतों को सुधार कर स्वास्थ्य प्रदान करते | जीवन जीने से। प्राकृतिक जीवन एवं पद्धति जो सरल, निरापद हैं। प्राकृतिक चिकित्सा जीवन रूपान्तरण का विधान है। दवाओं एवं उपयोगी है, उसके नियमों का पालन अपनी आदतों में शामिल से जीवन सुधर नहीं सकता। जैसे अजीर्ण होने पर दवा लेने से कर लिया जाये तो एक सुन्दर, स्वस्थ एवं उद्देश्यपूर्ण जीवन अजीर्ण से राहत तो मिल जाती है, परन्तु मूल कारण ज्यादा तथा सहजता से जिया जा सकता है। गरिष्ठ खाने की जीभ लोलुपता से मुक्ति नहीं मिलती है। दवा हमें भाग्योदय तीर्थ राहत देती है तथा ज्यादा खाकर और अधिक बीमार होने के लिए प्राकृतिक चिकित्सक सागर (म.प्र.) राजुल-गीत मेरी भाव-धारा कहती डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' श्रीपाल जैन 'दिवा' सखी मन उलझा चिंतन-जाल। सखी मन उलझा चिंतन-जाल । पुरुष सिंह से नीचे मन को, भाये कोई न चाल। चमक दामिनी लोप हो गई, चमके कैसे भाल। आभूषण अंगार हो गए, अम्बर अग्नि ज्वाल। प्राण तपे ज्यों घट आवा में, मैं तो हो गई लाल। बड़ा अचम्भा बिना मिलन के, विरह बना है काल। सुमन गात मसृण वेदन का, मत पूछो तुम हाल। आशा लेकर महावीर प्रभु! दरवाजे पर आया हूँ । अपनी नौका छोड़ किनारे, पार माँगने आया हूँ॥ सागर में डूबा उतराया, बचने की उम्मीद नहीं। तूफानों और हवाओं ने बस, जीर्ण-शीर्ण नौका कर दी। 2 सारे दीपक नभ के साये, अंधकार में तैरा हूँ। पतवार नहीं है पास हमारे, हाथ पैर यों मारा हूँ॥ आज तुम्हारा दर्शन पाया, दीपक ज्योति जगी है। श्रद्धा स्नेह भरा है उसमें, निष्कंपनता ऊगी है। साहस बटोरकर आया हूँ, फिर नई साँस उभरी है। चक्कर खाली नाव देखता, पार सही पहुँची है। आँखें नीचे हो जायेंगी, चेतनता जाग उठी है। तेरा वचन नहीं विसरेगा, बातें गहरी पैठी हैं ॥ राजुल मन को सरल करो। सखी री मन को सरल करो। जग वैभव चरणों को चूमे, कमी न, धीर धरो। कौन अभाव जगत में तुम हित, समन न आग भरो। स्वयं विचारो स्वयं करो निज हित का ध्यान धरो। माँ के उर का ट्रक, ट्रक तुम, उर के नहीं करो। चाहा वो मिल जाय अनिश्चय, दूजा भाव धरो। प्राण स्नेह शीतल छाया जग, मिले चाह तो करो॥ शाकाहार सदन एल.75, केशर कुंज, हर्षवर्द्धन नगर, भोपाल - 3 ये विचार बबूले पानी के, हरदम उठते रहते हैं। निर्विकार जब चित्त बनेगा, निस्तरंग हो जाते हैं । परमात्मा नहिं काबा में, नहिं कैलाशी, काशी में। वह बैठा तेरे ही भीतर, पा सकते हो इक झटके में। तुकाराम चाल, सदर, नागपुर 440001 (महाराष्ट्र) 26 अप्रैल 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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