Book Title: Jinabhashita 2002 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 30
________________ द्रव्यसंग्रह टीका 14/ 49 के अनुसार-'क्षीणकषाय | 183 व 184 में कहा है'गुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः अविरतक्षीणकषाययोर्मध्ये मध्यमः'-क्षीण पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवजभीरु परिसुद्धो। कषाय गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। अविरत और क्षीण संगहपुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो 183॥ कषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं उनमें मध्यम गंभीरो दुद्धारिस्रो मिदवादी अप्पदुहल्लेय। अन्तरात्मा है। चिरपव्वइदोगिहिदत्थो अजाणं गणधरो होदि 184।। नियमसार टीका 149 के अनुसार - 'जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादविरतः गाथार्थ :- जो धर्म के प्रेमी हैं, धर्म में दृढ़ हैं, संवेग भाव सुदृक् । प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः' सहित हैं, पाप से भीरु हैं, शुद्ध आचरण वाले हैं, शिष्यों के संग्रह अर्थ : अन्तरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे | और अनुग्रह में कुशल हैं और हमेशा ही पापक्रिया की निवृत्ति से (तीन) भेद हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अन्तरात्मा।। युक्त हैं गम्भीर हैं, स्थिर चित्त हैं, मित बोलने वाले हैं, किंचित् क्षीणमोह अन्तिम अर्थात् उत्कृष्ट-अन्तरात्मा और इन दो के मध्य कुतूहल करते हैं, चिर दीक्षित हैं, तत्त्वों के ज्ञाता हैं- ऐसे मुनि में स्थित मध्यम अन्तरात्मा है। आर्यिकाओं के आचार्य होते हैं। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि छठे गुणस्थानावर्ती ऐसा ही वर्णन अन्य ग्रन्थों में भी पाया जाता है। किसी भी मुनिमहाराज को तो सभी ने मध्यम अन्तरात्मा माना है। कथंचित् श्रमणाचार सम्बन्धी उपलब्ध ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनिराज उत्तम अन्तरात्मा की श्रेणी में आते गणिनी को ही आर्यिका दीक्षा देनी चाहिये। उपर्युक्त प्रमाण से तो हैं। मेरा सोचना है कि उपर्युक्त परिभाषाओं के अनुसार सप्तम ऐसा प्रतीत होता है कि इन गुणों वाले आचार्य आर्यिकाओं को गुणस्थानवर्ती शुद्धोपयोग में स्थित मुनिराजों को यदि उत्तम अन्तरात्मा दीक्षा देने वाले होने चाहिये। (2) यह सत्य है कि प्रथमानुयोग के में लिया जाये तो बहुत अच्छा रहेगा। किसी भी ग्रन्थ में ऐसा ग्रन्थों के अनुसार आर्यिका दीक्षाएँ अधिकांश रूप से गणिनी उल्लेख नहीं मिलता कि वर्तमान पंचमकाल में शुद्धोपयोग का अभाव आर्यिकाओं द्वारा ही दी जाती थीं। लेकिन मुनिराजों द्वारा भी है। अत: वर्तमान काल में महाव्रती मुनियों को मध्यम और उत्तम आर्यिका दीक्षा देने के प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं। अन्तरात्मा दोनों श्रेणियों में मानना उचित ही है। 1. सुदर्शनादेय नवम सर्ग काव्य नं. 74 में इस प्रकार कहा जहाँ तक छहढाला के विभिन्न संस्करणों में मध्यम | है:अन्तरात्मा की परिभाषा में देशव्रती अगारी' और 'देशव्रती अनगारी' इत्येवं वचनेन मार्दववता मोहोस्तभावं गतः, ऐसे दो पाठों के मिलने की चर्चा है, उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार यद्वद्गारुडिनः सुमन्त्रवशतः सर्पस्य सर्पो हतः। 'देशव्रती अगारी' पाठ उचित नहीं लगता, क्योंकि देशव्रती तथा आर्या त्वं स्म समेति मण्यललना दासीसमेतान्वितः अगारी दोनों शब्द समानअर्थवाची हैं तथा उपर्युक्त आगम प्रमाणों स्वर्णत्वं रसयोगतोऽत्र लभते लोहस्य लेखा यतः ।। के अनुसार 'अगारी' पाठ स्वीकृत करने पर छठे गुणस्थानवर्ती इस प्रकार सुदर्शन मुनिराज के सुकोमल वचनों से उस मुनियों का इसमें समावेश न हो पायेगा, जो उचित नहीं होगा। देवदत्ता वेश्या का मोह नष्ट हो गया, जैसा कि गारुडी (सर्प-विद्या अत: छहढाला का 'देशव्रती अनगारी' पाठ ही आगमसम्मत मानकर जानने वाले) के सुमंत्र के वश से सर्प का दर्प नष्ट हो जाता है। स्वीकृत करना चाहिये। पुनः दासी-समेत वारांगना देवदत्ता ने उन्हीं सुदर्शन मुनिराज जिज्ञासा - प्रथमानुयोग के ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट है से आर्यिका के व्रत धारण किये। सो ठीक ही है, क्योंकि इस कि कुछ शताब्दियों पूर्व आर्यिका दीक्षा गणिनी माताओं द्वारा ही जगत् में लोहे की शलाका भी रसायन के योग से सुवर्णपने को दी जाती थी। वर्तमान में अधिकांश आर्यिका-दीक्षाएँ आचार्यों प्राप्त हो जाती है। द्वारा दी जा रही हैं। कृपया आगम-व्यवस्था स्पष्ट करने का कष्ट 2. श्री सुदर्शनचरितम् ( अनेकान्त विद्वत् परिषद् प्रकाशन) करें। पृष्ठ-87 पर इस प्रकार लिखा है:समाधान -आपने अपनी जिज्ञासा में लिखा है कि कुछ | सेठ रिषभदास की सेठानी जिनमति ने समाधिगुप्ति मुनिराज शताब्दियों पूर्व आर्यिका दीक्षा गणिनी माताओं द्वारा ही दी जाती | से आर्यिका दीक्षा ले ली। थी। इस कथन को यदि इस प्रकार कहा जाये कि चौथे काल में | 3. श्री पद्मपुराण भाग-1, पृष्ठ 453 पर कहा है-'भाई के अर्यिकाओं को दीक्षा गणिनी माताओं द्वारा दी जाती थी तो अधिक | स्नेह से भीरु मनोदया ने भी बहुत भारी संवेग से युक्त हो, गुणसागर उचित होगा, क्योंकि समस्त प्रथमानुयोग चतुर्थ काल से ही | नामक मुनिराज के पास दीक्षा ले ली।' सम्बन्धित है। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि चतुर्थकाल में भी मुनिराजों अब मुख्य प्रश्न पर विचार करते हैं। द्वारा आर्यिका दीक्षा देने के प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध हैं। (1) जहाँ तक, आर्यिकाओं को दीक्षा देने वाले गुरु कैसा | अतः वर्तमान में आचार्यों द्वारा आर्यिका दीक्षा देना आगम होना चाहिये, का प्रश्न है, इसका सीधा समाधान किसी भी श्रमणाचार सम्मत ही मानना चाहिये। सम्बन्धी आचार ग्रन्थ में नहीं पाया जाता। श्री मूलाचार आदि ग्रन्थों में यह वर्णन अवश्य पाया जाता है कि आर्यिकाओं के 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी गणधर आचार्य कैसे होने चाहिये, जैसा कि श्री मूलाचार गाथा आगरा (उ. प्र.)-282002 28 अप्रैल 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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