Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 11
________________ प्रथमभाग। पास अहि मोर मृगी हैरि, जातिविरोध नशाया है। देखो जी ॥२॥ शुधउपयोग हुताशनमें जिन, वसुविधि समिधे जलाया है। श्यामलि अलिकावलि शिर सोहै, मानों धुआँ उड़ाया है ।। देखो जी० ॥ ३॥ जीवन मरन अलाभ लाभ जिन, तृन मनिको सम भाया है। सुरनर-नाग नमर्हि पद जाके, दौल तास जस गाया है ।। देखो जी ॥४॥ ३. जिनवर-आनन-भान निहारत, भ्रमतमधान नसाया है । जिन० ॥ टेक ।। वचन-किरन-प्रसरनतें भविजन, मनसरोज सरसाया है । भवदुखकारन सुखविसतारन, कुपथ सुपथ दरसाया है । जिन०॥ १॥ विनसाई कर्ज जलसरसाई, निशिचर समर दुराया है। तस्कर प्रवल कषाय पलाये, जिन धन बोध चुराया है ।। जिनः ॥२॥ लखियत उडु न कुभाव कहूं अव, मोह . १ सिंह । २ होम करनेकी लकड़ियें। ३ काई, दूसरी-पक्षमेंअमानरूपी काई। ४ कामदेव । ५ चोर । ६ तारे। .

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