Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ जैनपदसंग्रहभव नसाय ॥ १६ ॥ त्रिभुवन तिहुँकालमझार कोय । नहिं तुम विन निजसुखदाय होय ॥ मो उर यह निश्चय भयो आज । दुखजलधिउतारन तुम जहाज ॥ १७॥ दोहा। तुम गुन-गन-मनि गनपती, गनत न पावहिं पार । दौलवल्पमति किमि कहै, नमों त्रियोगसँभार १८ देखो जी आदीश्वर स्वामी, कैसा ध्यान लगाया है। कर ऊपरकर सुभग विराजे, आसन थिर ठहराया है ॥ देखो जी० ॥ टेक ।। जगतविभूति भूतिसम तजकर, निजानंद-पद ध्याया है । सुरभित-वासा, आशावासा नासादृष्टि सुहाया है । देखो जी० ॥ १ ॥ कंचनवरन चलै मन रंच न, सुरंगिर ज्यों थिर थाया है। जास १ गणधरदेव २ मनवचनकाय । ३ भस्म जैसी। ४ सुगंधित । ५ दिशारूपी वस्त्र-दिगम्बरता । ६ सुमेरु ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 253