Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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प्रथममाग।
वंदों अदभुत चन्द्र वीर जिन, भवि-चकोरचितहारी ॥ वंदो० ॥ टेक । सिद्धारथनृपकुलनभ-मंडन, खंडन भ्रमतम भारी। परमानंद-जलधिविस्तारन, पाप-ताप-छयकारी ।। वंदों ॥१॥ उदित निरंतर त्रिभुवन अंतर, कीरति किरन पसारी । दोपमलंककलंकअटंकित, मोहराहु निरवारी ।। वंदों० ।। २ ।। कर्मावरॅन-पयोद-अरोधित, वोधित शिवमगचारी । गनधरादि मुनि उडॅगन सेवत, नित पूनमतिथि धारी ।। वंदों० ॥शा अखिल अलोकाकाश-उलंघन, जासु ज्ञानउजियारी । दौलत मनसा-कुमुदनि-मोदन, जयो चरमजगतारी ।। वंदों॥४॥
निरखत जिनचंद्र-वदन, खपरसुरुचि आई।
१ वर्द्धमानभगवान् । २ दोपा-रात्रि । ३ पापरूपी कलंक । ४ कर्मावरणरूपी बादलोंसे जो ढकता नहीं है। ५ तारागण । ६म. नरूपी कुमोदनीको हर्पित करनेवाला । ७ अन्तिम तीर्थंकर ।

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