Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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जैनपदसंग्रहउलूक लजाया है। हंस कोकको शोक नश्यों निजा-परिनतिचकवी पाया है । जिन०॥३॥ कर्मबंधकजकोष बंधे चिर, भवि-अलि मुंचन पाया है । दौल उजास निजातम अनुभव, उर जग अंतर छाया है ॥ जिन०॥४॥ . . पारस जिन चरन निरख, हरख यों लहायो, चितवत चंदा चकोर ज्यों प्रमोद पायो । टेक॥ ज्यों सुन घनघोर शोर, मोरहर्षको न ओर, रंक निधिसमाजराज, पाय मुदित थायो । पारस०॥१॥ ज्यों जन चिरछंधित होय, भोजन लखि सुखित होय, भेषज गद-हरन पाय, सरुज सुहरखायो । पारस० ॥ २॥ वासर भयो धन्य आज, दुरित दूर परे भाज, शांतदशा देख महा, मोहतम पलायो॥ पारस०॥ ३॥ जाके गुन जानन जिम, भानन भवकानन इम, जान दौल शरन आय, शिवसुख ललचायो । पारस०॥४॥
१ आत्मा। २ चकवा । ३ कर्मवंधरूपीकमलोंके कोष बंधे हुए थे उनसे । ४ छोर । ५ वहुतकालका भूखा ।-६ दवाई। ७ रोगी।
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