Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ प्रथमभाग। कवहूं न अनुभयो खपद सार ।। १० ।। तुमको विन जाने, जो कलेश । पाये सो तुम जानत जिनेश ।। पशु-नारक नर-सुरगतिमझार । भव घर घर मखो अनंत वार ॥ ११॥ अब काललब्धिवलत दयाल । तुम दर्शन पाय भयो खुशाल ॥ मन शांत भयो मिट सकलबंद । चाख्यो खातमरस दुखनिकंद ।। १२ । तातें अव ऐसी करहु नाथ । विछुरै न कभी तुव चरनसाथ ।। तुम गुन-गनको नहिं छेव देव ! जगतारनको तुअ विरद एव ॥ १३॥ आतमके अहित विषय-कपाय । इनमें मेरी परनति न जाय ॥ में रहों आपमें आप लीन । सो करो होहं ज्यों निजाधीन ॥ १४ ॥ मेरे न चाह कछु और ईश । रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश ॥ मुझ . कारजके कारन सु आप । शिवं करहु हरहु मम मोहताप ॥ १५॥ शशि शांतिकरन तपहरन-हेत । खयमेव तथा तुम कुशल देत ।। पीवत पियूष ज्यों रोग जाय । सों तुम अनुभवते १ पार । २ मोक्ष । HELHI

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 253