Book Title: Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs
Author(s): P B Desai
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 433
________________ 407 म्द्वसेनभट्टारकर कालं कार्श्व धारापूर्च्चकं माडियूरिन्दं बडगलु तोरेयिन्दं मूडलु मालगार्त्तिय पोलवेरोयें तेंकलु पळेयिंगुणिगेय मालगार्त्तय पेब्बयिं पहुवलु शत्रशालेय केरिय बडगलिंतु चतुराघाटशुद्धियं सिद्धं माडि भरलूर पन्देश्वरद गरिबद गण्डरादित्यन पिरिय काललु सर्व्वनमश्यमागि बिट्ट मत्तरि सोन्दु २१ [1] आपिरिय मत्सर १ क्के कालडिय मत्तर १८ र लेक्कदनित काल मत्तर ३८० [ । ] पल्लकरटेय बहेय दानवन बाबियिं मूडलु तोटे मन्तर [१] बसदियिन्तेंकण पिरिय केरियिन्ती के ट्युमनी तोण्टमुमनी केरियुमनीजिनेन्द्र मंदिरमुमं कंडु ॥ APPENDIX II प्रणु (ण) तशिररागि कण्गळ् तणिविनेगं नोडि पोगदीस्थळ दो का -[ 1 ] गिणिगासेगेय्दवं कागिणियोऴ्नीरुंड गोकुळंगळनं ळिदं ॥ ७ ॥ इदरिदधर्ममनोवदे किडिसिदवं गोगुरुद्विजनिकुरूं -[ । ] बद गोणं गंगातीरदोळरिदरिदप्प पातकं समनिसुगुं ॥ [ ८ ] बिगिदिई कम्र्मनिगळं गडवेरदे कळल्दु पोगे हस्तांबुजयुग्ममं मुगिवुदलदे मंनेय गाण्के शेषे क [1] हुँ बणमायदायमिवु सल्लवु सर्व्वनमस्य मेंदु बिहं बिरुदंक भीमनोसेदानेगनय्यण वंशवुळ्ळिनं ॥ [4] नियतं चत्रिय कय्योळाळकेवडेदासामन्तरं नाड मैनेयरुं ग्रामद मूलिगर्भ भुगळिन्तीधर्ममं संदति -[ ।] प्रियादें रक्षिति रक्षिसुतिरल् दीर्घायुष्यमं पुण्यवृद्धियुमं निर्मळ कीर्तियं पडेवराचन्द्रावतारम्य ॥ [ १० ] सामान्योयं धर्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः [। सर्व्वानेतान् भागिनः पाथिर्वेदान् भूयो भूयो याचते रामचंद्रः ॥ [११] वसुधा बहुभिर्द्दत्ता राजभिः सगरादिभिः [ । ] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ [१२] मद्वंशजाः परमहीपतिवंशजा वा ये पाळयंति मम धर्ममिदं समस्तं [ । ] पापादपेतमनसो भुवि भाविभूपास्तेषां मया विरचितोञ्जलिरेष मूर्ध्नि ॥ [१३] स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुंधरां [] षष्टिवर्ध्वर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमि: ॥ [१४] विन्ध्याटवीवतोयासु शुष्ककोटरशायिन: [ । ] कृष्णसर्पा हि जायन्ते देवभोगापहारिण: । [१५] वाग्वधूनन्दनं जिनपादांभोज-भृङ्गं नागार्जुनपण्डितं बरेदं [1] मङ्गळमहाश्री [ ॥ ] हिन्दी सारानुवाद -- जिनशासन की प्रशंसा । समस्तभुवनाश्रय आदि अनेक विरुदोंके धारक चालुक्यभूषण त्रिभुवनमल्लदेव अपनी राजधानी कल्याणपुरसे राज्यशासन कर रहे थे। उनकी जैनधर्मपरायणा रानी, तिक्ककी पुत्री जाकलदेवी इङ्गुणिगे ग्रामका शासन करती थी वह निरन्तर जिनचरणोंकी पूजा में रत रहती थी। उसके पति राजा ने उसे जिनधर्मसे पराङ्मुख करनेकी प्रतिज्ञा ले रखी थी, पर वह असफल रहा। एक शुभदिन रानीके सौभाग्यसे एक व्यापारी महुमाणिक्यदेवकी प्रतिमा लेकर आया और रानीके समक्ष अपने विनय भाव दिखला रहा था कि उसी समय राजा त्रिभुवनमल्लदेव आ गया और रानीसे कहने लगा कि यह जिनमूर्ति अनुपम सुन्दर है, इसे अपने अधीन ग्राम प्रतिष्ठित करो। तुम्हारे धर्मानुयायियोंको यह प्रेरणाप्रद होगी । इस तरह राजाकी आशासे रानीने मूर्तिकी प्रतिष्ठा करा दी, और सुन्दर मन्दिर भी बनवा दिया । मन्दिरकी व्यवस्थाके लिए उसने, द्रविळसंघ, सेनगण, मालनूर अन्वयके मल्लिषेण भट्टारकके प्रधानशिष्य तथा अपने कुलगुरु इन्द्रसेन भट्टारकसे दान स्वीकार करनेकी प्रार्थना की । यह दान, चालुक्यविक्रमके १८ वें राज्यवर्षमें श्रीमुखसंवत्सर फाल्गुन सुदी १० सोमवारके दिन, समारोह पूर्वक भट्टारकजी के चरणोंकी पूजा कर उन्हें सौंपा गया । दानमें २१ बृहत् मत्तर प्रमाण कृष्यभूमि, १ बगीचा और जैनमन्दिरके समीपका एक घर दिया गया । स्थानीय राजपुरुषों और उच्च अधिकारियोंको दान की रक्षाका आदेश । इस शिलालेखकी रचना जैनकवि नागार्जुन पण्डितने की । [ नोट-यह दानपत्र चालुक्यवंशके इतिहास तथा तत्कालीन धार्मिक प्रवृत्तिपर प्रकाश डालता है । ]

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