Book Title: Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs
Author(s): P B Desai
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 447
________________ 421 ग्रहणपर्वदिनंगळिणं नित्यपूजेगं बिट्ट आर्य हेरिंगे भत्त मान १ तूकद खण्डके होंगे बेकिळ्य हाग १ प्रणिकेय खण्डके होंगे बेलपहाग १ सीरेय कोण्डकोहल्लि होंगे बेळ्ळिय भाग १ मेळसिंगे होंगे बेकिळ हाग १ नीलिय गुळिगेगे होंगे बेल्लिय हाग १ प्रलेय हेरिंगे प्रले ५० इंतीधर्मप्रवर्तनेयं नडेवंतप्पवरु तम्म तम्म धर्मवेदे प्रतिपाळिसुवदु ॥ APPENDIX Irr स्थिरदिदिंतिदनेयदे काव पुरुषंगायुं जयश्रीयुमक्कुमिदं कायदे काय्व पापिगे कुरुक्षेत्रंगळोळु वारणा -[1] सिगोळु कोटिमुनींवरं कविलेयं वेदाव्यरं को दुदोंदजसं शासनवागि सार्दपुदिदीशैळाक्षरं धात्रियोळु ॥ स्वदतां परदत्तां वा यो हरेत वसुंधराम् [1] षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ हिन्दी सारानुवाद- स्वस्ति । कलचूर्यवशंके राजा रायमुरारि सोविदेवकी प्रशंसा । वह सेलेयहळ्ळिसे शासन कर रहा था । उसके राज्यके ५ वें वर्ष, खर संवत्सरके पौष सुदी पञ्चमी दिन सोमवारको मिरिन्तेनाडुके महामण्डलेश्वर ( अनेक बिरुदधारी) ऐचरसने महाप्रधान, दण्डनायक एवं आडकीनगर के महाप्रभु विष्णुदेवरस, बाचिदेवरस एवं त्रिलोचनदेवरसके साथ तथा अय्यावळे नगरके पांच सौ स्वामियों' ( इनकी अनेक विध प्रशंसा) के स्थानीय प्रतिनिधियों-छत्तीस बीड, मुम्मुरिदण्डों और उभयनानादेशियोंके सहयोग से एक दान दिया । यह दान आडकीके दक्षिणमें स्थित कोप्पजिनालयके चेन्नपार्श्वनाथकी नित्यनैमित्तिक पूजाके लिए दिया गया था । और यह दान भी, धान्य, स्त्रियोंके कपड़े, पीपर आदि मसालेके पदार्थों की बिक्री पर लगे करोंसे प्राप्त द्रव्यके रूपमें था । अन्तमें दानकी रक्षाके लिए अनुरोध । [ नोट : - इस महत्त्वपूर्ण लेखसे दक्षिणी कलचुरि वंश तत्कालीन व्यापारीसंघ एवं दानविधि पर प्रकाश पड़ता है । ] [१२] आडकी गांव भीतर एक शिलास्तंभपर - प्राचीन कन्नडम ( सन् १२४३ इ. ) [ पूर्वोक्त लेखके नीचे-ऊसी ओर ] श्री स्वस्ति [ 1 ] श्रीमतु यादवनारायण प्रतापचक्रवर्ति सिंघणदेववरुषद् ४५ नेय शोभक्रतु संवत्सरद भाषाढबहुळ ५ बुधवार श्रीमतु आडकिय तेंकण कोप्पजिनालयद चेनपार्श्वदेवर नंदादीविगेगे मुम्मुरिदण्डंग कुभयनाना देसिगळु प्रभु मुख्यवागि सिगरु बिट्ट धर्म गाणके सौटु १ श्री [ ] मंडलेश्वरasa स्थिरं जीयात् ॥ श्रीमदय्यावळे तूर्वरु हिन्दी सारानुवाद - श्रीमान् यादवनारायण प्रतापचक्रवर्ती सिंघणदेव के ४५ वें वर्ष शोभकृत संवत्सरमें आषाढ वदी ५ बुधवारको मुम्मुरिदण्डों, उभयनानादेशियों तथा स्थानीय मुखियों और प्रतिनिधियोंने आडकीके कोप्पजिनालय में चेन्न पार्श्वप्रभुके सामने सतत दीपक जलाने के लिए प्रत्येक कोल्हू पीछे एक कलछुल तैल दान दिया । [ नोट - सिंघणके राज्यसंवत् पर तथा विविध व्यापारिक संघों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश ] [१३]. आडकी गांव भीतर एक मस्जिद के पास पत्थरपर - प्राचीन कन्नडमे - त्रुटित ( लगभग सन् ११७० इ. ) शनिवारसिद्धि गिरिदुर्गमल्ल. नामादि समस्तप्रशस्तिसहितं रायमुरारि सोविदेवः भाडकिय मादेविय पिरिय बसदिय अष्टविधार्थने ... ...

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