Book Title: Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs
Author(s): P B Desai
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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JAINISM IN SOUTH INDIA
[४] सेडमके पूर्वोक्त सूनसान जैन मन्दिरसे प्राप्त प्रशस्ति, संस्कृत मिश्रित कन्नड (वरण्डेमें वामपार्श्वके चौकोर खम्मे पर उत्कीर्ण, समयका उल्लेख नहीं, पर लगभग सन ११२६-३८ के बीच) स्वस्ति [1] समस्तसुरासुरमस्तकमकुटोशुजाळजळधौतपदन।] प्रस्तुतजिनेंद्रशासनमस्तु चिरं भद्रमखिळभव्यजनानां ॥ [१]
धरेयेबबुजमिप्दु शरधिसरोवरद नडुवे कणिकेवोल्मंदरमिप्र्युदल्लि मंदरगिरिथिदं तकलेसेव भरतक्षेत्र ॥ [२] भाभरतक्षेत्रदोळु चालुक्यचक्रेश्वरर वंशावतारदोळ् ॥
अगे नेगेवंददिंदोगद राष्ट्रकुमारकर पोरळिच कोंदगणितवाद पेमगे तवर्मनेयागि चळुक्यरन्वयं [1] नेगळे नेगळ्तेयं तळेदु तनय तेजदोळाणेयोलयुंडिगे सले साध्यवाद नेलनं तळेदं नृपमेरु तैलपं ॥ [३] अंतु । जनतासंस्तुतनाद तैलन मगं सत्याश्रयं तकृपाळन पुत्रं विभु विक्रमं तदनुजं श्रीयय्यणोशिना-[1] तन तम्म जयसिंहनातन मगं त्रैळोक्यमल्लक्षितीशनेनिप्पाहवमल्लनातन मगं सोमेश्वरोर्वीश्वरं ॥ [४] तत्सहोदरं ॥ श्रीमत्रिभुवनमल्लनिळामहितं नहुषपृथुभगीरथचरितं [1] भूमण्डलमं सकळाशामंडळमवधियप्पिनं साधिसिदं ॥[५] तत्पुत्रं ॥ निनगेकच्छत्रमकी भुवनभवनमीलोकदायुष्यमेल्लं निनगकन्यावनीपाळकरतिभयदि तम्म सर्वस्वमं ते-[1] तु निजश्रीपादपकरगुगे पिरिदुं प्रीतिथि विश्वधात्रीजनमं भूलोकमल्लक्षितिपति दययिं रक्षिसाचंद्रतारं ॥ [६] ख्यातस्त्रैविद्यापरनामा श्रीरामचंद्रमुनितिलकः [1] प्रियशिष्यस्वैविद्यप्रभेदुभट्टारको लोके ॥ [७] जिनपतिमततत्त्वरुचिर्भयप्रमाणप्रवीणनिशितमतिः । परहितचरित्रपात्रो बभौ प्रभाचंद्रयतिनाथः [८] प्रभाचंद्रमुनींद्रस्य मुखचंद्रस्य चंद्रिका । विद्वजनमनोजातखेदतामसहारिणी ॥ [१] मुनिवृंदाराध्यनी बंदने कुमतमतध्वंसनी बंदनी बंदने वादीभेद्रकंठीरवनखिळगुणगणोहामनी बंदनी ब-[1] दने चार्वाकादि-वादिप्रकरमेले मनोगति॒मं तोरदिआणेनुतुं त्रैविधनी बंदने गुणगणधामं प्रभाचंद्रदेवं ।। [१०] भुवनाश्चर्यमेनल्के माडिसिदरीलोकं गुणंगोळ्धिनं दिविजेंद्रार्चितशांतिनाथजिनपश्रीगेहमं दल् महो- [1] सपदि मेरुनगेंद्रचैत्यगृहदि मेलेबिनं शांतिनाथविशिष्टामणि बर्मदेवविभुगळ् सम्यक्त्वरत्नाकरर् ॥ [११] मत्तं ॥ निनगभिवृद्धियके शुभमके शुभोदयमके पुण्यमकनुपमलक्ष्मियके जयमकजरामरमके पुण्यभा- [1] जन वरशांतिनाथजिनपादपयोरुहभंगसज्जनाननमुकुरुंद भव्यजनबांधव सद्विजवंशभूषण ॥ [१२] अंबरमं पळंचलेयुतिळ्दपुदिक्किद कोटे नागलोकंबरवरदे मुट्टिदुदगळ्दगळित्त दिशादिशान्तरा- [1] ळंबरमेय्दे पविदुदु तेजद साजदगुर्वे नल्के सेडिंबदोळेसि कादुवदटर्गिदु मस्तकशूलमल्लदे ॥ [१३] अंबुधि मेरेदप्पि कविदीधरेयं कोळुवंदु विष्णुवीशंबरसीजगत्रयमुमं बसिरोळ्निलिसिटु काववो- [1] लिंबलिदिळ्द नाल्देसेय नाडुगळं पेरगिकि काव सेडिंबद विप्ररोंदळवनेवोगळ्वं चलदंकरामरं ॥ [१४] एदारेयर्सेडिंबदनादिय बावन्न वीररोळ् मच्छरदिं [1] कादुवराकांचीपुटभेदनपटुतरकवाटपुटविघटनरोळ् ॥ [१५] सुररं दैत्यरुमब्धियं कडेयुतिप्पंदुशेषाहि भीकरकोपाग्रहि काळकूटविषमं तुप्पेंदडादेवरु [1] सुररु भीतियिनोडुवंदु गिरिशं कावंददि कादरीधरे केटोडुव कालदंदु पलर सेडिंबदुर्गाधिपर ॥ [१६] शरणेंदु मूरुलोकं बगेयिं कैकांड काव महिमास्पदरोळ् शरणागतपरिपंजरररविंदोदरन दोरेयरीमूनूवर ॥ [१७] तोदळेनीधर्ममं रक्षिसिद नरने दीर्घायुरारोग्यमुर्वीविदितप्रख्याति वंशोन्नति मदननिभाकारमव्याकुळं श्री- [1] सुदतीनाथत्वमिती भवदोळे सगुवलिं बळिके सुरेंद्रास्पददोळ् कूडिप्परत्तल पोगळलरियेनानेय्दे ----- ॥ [१८]
हिन्दी सारानुवाद-जिनेन्द्र शासन भव्य जनोंका कल्याण करें । राष्ट्रकूट वंशको पराजित कर चालुक्य शासनकी स्थापना करनेवाले तैलप द्वितीयसे लेकर भूलोकमल्लतक वंशावली । (७१० पद्योंमें) श्रीरामचन्द्र त्रैवेद्यके शिष्य प्रभाचन्द्र भट्टारककी प्रशंसा, जिससे मालुम होता है, कि वे जैनदर्शनके प्रकाण्डपण्डित तथा सफल वादी थे । (११-१२ पद्योंमें) सम्यक्त्व रत्नकी खानि अप्रणी बर्मदेवने बड़े महोत्सवके साथ जिनेन्द्र शान्तिनाथके मन्दिरको पूरा करा दिया, इससे उसके पुण्य, धन, धान्य, वैभव, सौभाग्यकी अभिवृद्धि की कामना की गई है। (१३ वें पद्यमें) सेडिम्बका दुर्ग अपने उन्नत प्राकार और अत्यन्त गम्भीर परिखाके कारण शत्रुओंसे दुर्जेय था।
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