Book Title: Jainagmo Me Parmatmavad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashanalay

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Page 5
________________ "" (४) जैनदर्शन में मुक्तात्मा के अर्थ में ईश्वर शब्द का व्यवहार नहीं किया जाता है, तथा जैनदर्शन, वैदिकदर्शन द्वारा माने गए ईश्वर का ईश्वरत्व (जगत्कर्तृत्व यादि) भी स्वीकार नहीं . करता है । जैनदर्शन का विश्वास है कि परमात्मा सत्यस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप है, ग्रानंदस्वरूप है, वीतराग है, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है | परमात्मा का दृश्य या अदृश्य जगत में प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई हस्तक्षेप नहीं है, वह जगत का निर्माता नहीं है, भाग्य का विधाता नहीं है, कर्म - फल का प्रदाता नहीं है, तथा अवतार लेकर वह संसार में आता भी नहीं है । जैनदर्शन कहता है कि व्यक्ति को अपेक्षा से परमात्मा एक नहीं है, अनन्तजीव परमात्मपद प्राप्त कर चुके हैं । परमात्मा अनादि नहीं है । परमात्मा को अनादि न मानने का इतना ही अभिप्राय है, कि जीव कर्मों को क्षय करने के अन्नतर ही परमात्मपद पाता है । परमात्मा एक जोव को दृष्टि से सादि अनन्त है, अनादि काल से जीव मुक्त हो रहे हैं, और अनन्त काल तक जीव मुक्त होते रहेंगे इस दृष्टि से परमात्मा अनादि अनन्त भी है। परमात्मा श्रात्मप्रदेशों की दृष्टि से सर्वव्यापक नहीं है । उसके ग्रात्मप्रदेश सीमित प्रदेश में अवस्थित हैं, किन्तु उसके ज्ञान से सारा संसार ग्राभासित हो रहा है, इस दृष्टि से (ज्ञान की दृष्टि से) उसे सर्वव्यापक भी कह सकते हैं । संसार के धन्धे में उसका कोई हस्तक्षेप नहीं है । जीव को कर्म करने में किसी सर्वथा स्वतन्त्र है, परमात्मा जीव कर्म करने में किसी भी प्रकार की कोई प्रेरणा प्रदान नहीं करता है । उसे किसी कर्म के करने से वह निषिद्ध भी नहीं करता । जीव जो कर्म करता है, उसका फल जीव को स्वतः ही मिल जाता है । श्रात्मप्रदेशों से सम्बन्धित कर्म-परमाणु ही कर्म-कर्ता अपना पद दे डालते हैं । मदिरा मदिरासेवी जीव को स्वय व्यक्ति पर जैसे

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