Book Title: Jainagmo Me Parmatmavad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashanalay

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Page 11
________________ " ( १० ) विहरण कर सकता हो, ऐसा कोई आगम-ममज्ञ महापुरुष हो इन प्रश्नों का समाधान कर सकता है । जनसाधारण के वश का यह काम नहीं है । जैन समाज में ग्रागममहारथी महा-पुरुषों की कमी नहीं है । जैनागमों के मर्म को समझने वाले तथा उस के महासागर के तल का स्पर्श करने वाले समाज में आज भी अनेकों पूज्य मुनिराज हैं । किन्तु मालूम होता है कि इस सम्वन्ध में उन्होने कोई ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि आज तक किसी ऐसी पुस्तक की रचना नहीं हो सकी है, जिस में परमात्मसम्वन्धी श्रागम-पाठों का संकलन किया गया हो। वैसे ऐसी पुस्तक होनी श्रवश्य चाहिए। जैनागमों में जहां-जहां परमात्मा का वर्णन आता है, जिन शब्दों तथा जिस रूप में वह वर्णन किया गया है उस सब का संकलन किसी पुस्तक में अवश्य हो जाना चाहिए । तभी जैनागमों में वर्णित परमात्म-स्वरूप का जनसाधारण को बोध प्राप्त हो सकता है । ग्रागमों में यत्र-तत्र ग्राए हुए परमात्मसम्बन्धी पाठों का संकलन होना चाहिए, ऐसा संकल्प तो जिज्ञासु पाठकों के हृदयों में वर्षों से चक्र लगा रहा हैं, किन्तु उसे पूरा करने का किसी ने प्रयास नहीं किया । मुझे हार्दिक हर्ष होता है, यह बताते हुए कि हमारे श्रद्धेय आचार्य सम्राट् श्री ने इस दिशा में प्रयत्न करके उस संकल्प को ग्रांज पूरा कर दिया है | आचार्य श्री ने अपने अनवरत स्वाध्याय के वल पर आगमों से प्रायः वे सभी पाठ संकलित कर लिये हैं, जिन में परमात्मवाद को ले कर कुछ न कुछ कहा गया है, उसके स्वरूप को लेकर चिंतन किया गया है । उन पाठों का संकलित रूप ही ग्राज हमारे सामने

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