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भगवान महावीर ने पाच मूल द्रव्यो का प्रतिपादन किया । वे पचास्तिकाय कहलाते है। उनमे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय—ये तीनो अमूर्त होने के कारण अदृश्य है। जीवास्तिकाय अमूर्त होने के कारण दृश्य नहीं है फिर भी शरीर के माध्यम से प्रकट होने वाली चैतन्य क्रिया के द्वारा वह दृश्य है । पुद्गलास्तिकाय [परमाणु और स्कन्ध] मूर्त होने के कारण दृश्य है। हमारे जगत् की विविधता जीव और पुद्गल के सयोग से निष्पन्न होती है। प्रस्तुत आगम मे जीव और पुद्गल का इतना विशद निरूपण है जितना प्राचीन धर्मग्रन्थो या दर्शनग्रन्थो मे सुलभ नही है ।
प्रस्तुत आगम का पूर्ण आकार आज उपलब्ध नही है किन्तु जितना उपलब्ध है उसमे हजारो प्रश्नोत्तर चर्चित हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से आजीवक सघ के आचार्य मखलिगोशाल, जमालि, शिवराजपि, स्कन्दक सन्यासी आदि प्रकरण बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । तत्त्वचर्चा की दृष्टि से जयन्ती, मद्दुक श्रमणोपासक, रोह अनगार, सोमिल ब्राह्मण, भगवान् पार्श्व के शिष्य कालासवेसियपुत्त, तुगिया
नगरी के श्रावक आदि प्रकरण पठनीय है । गणित की दृष्टि से पापित्यीय गागेय अनगार के । प्रश्नोत्तर बहुत मूल्यवान् है।
भगवान महावीर के युग मे अनेक धर्म-सम्प्रदाय थे । साम्प्रदायिक कट्टरता बहुत कम थी। एक धर्म सघ के मुनि और परिव्राजक दूसरे धर्म सघ के मुनि और परिव्राजको के पास जाते, तत्त्वचर्चा करते और जो कुछ उपादेय लगता वह मुक्तभाव से स्वीकार करते। प्रस्तुत आगम मे ऐसे अनेक प्रसग प्राप्त होते है जिनसे उस समय की धार्मिक उदारता का यथार्थ परिचय मिलता है। इस प्रकार अनेक दृष्टिकोणो मे प्रस्तुत आगम पढने मे रुचिकर, ज्ञानवर्धक, सयम और समता का प्रेरक है। विभाग और अवान्तर विभाग
समवायाग और नन्दीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत आगम के सौ से अधिक अध्ययन, दस हजार उद्देशक और दस हजार समुद्देशक हैं। इसका वर्तमान आकार उक्त विवरण से भिन्न है। वर्तमान मे इसके एक सौ अडतीस शत या शतक और उन्नीस सौ पच्चीस उद्देशक मिलते है। प्रथम बत्तीस शतक स्वतन्त्र है । तेतीस से उनचालीस तक के सात शतक बारह-बारह शतको के समवाय है। चालीसवा शतक इक्कीस शतको का समवाय है। इकचालीसवा शतक स्वतन्त्र है। कुल मिलाकर एक सी अडतीस शतक होते है । उनमे इकचालीस मुख्य और शेष अवान्तर शतक हैं।
___शतको मे उद्देशक तथा अक्षर-परिमाण इस प्रकार हैशतक उद्देशक अक्षर-परिमाण शतक उद्देशक अक्षर-परिमाण ३८८४१
७५३ २३८१८
२५६११ ३६७०२
१८६५२ १ समवामो, सूत्र ६३, नन्दी, सून ८५।
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