Book Title: Jainagmo Me Parmatmavad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashanalay

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Page 10
________________ ( ९ ) स्वरूप कृतं कोई अन्तर नहीं रहता है, जीव ईश्वर - स्वरूप ही बन जाता है । . यह ईश्वर का तीसरा रूप है, जिसे जैन लोग स्वीकार करते हैं। जेनों की ईश्वर-सम्बन्धी मान्यता के सम्बन्ध में पीछे भी वर्णन किया जा चुका है । ईश्वर के सम्बन्ध में अन्य अनेकों रूप भी मिल जाते हैं । किन्तु मुख्य रूप से आज इन तीनों रूपों का ही अधिक प्रचार एवं प्रसार देखने में आता है । इसलिए यहां इन तीनों का ही संक्षिप्त परिचय कराया गया है । जनागमों में परमात्मवाद प्रारंभ में कहा जा चुका है कि जैनदर्शन में परमात्मा के अर्थ में ईश्वर शब्द का व्यवहार देखने नहीं श्राता है । परमात्मा के लिए जैनदर्शन में सिद्ध, बुद्ध आदि पदों का प्रयोग मिलता हैं । अव यहां कई एक प्रश्न हमारे सामने आते हैं कि जैनदर्शन में सिद्ध, बुद्ध आदि पदों का प्रयोग किस-किस रूप में पाया जातां है? और कहां-कहां पाया जाता है ? तथा जैनदर्शन परमात्मा को एक कहता है या अनेक ? सादि बतलाता है या अनादि ? इन प्रश्नोंका तथा इस प्रकारके अन्य प्रश्नोंका समाधान प्राप्त करने के लिए हमें जैनागम - सागर का मन्थन करना होगा । जैनागमों का गंभीर चिन्तन, मनन, निदिध्यासन किए बिना उक्त प्रश्नों का समाधान प्राप्त होना कठिन है । पर यह काम बच्चों का खेल नहीं है । इस के लिए प्रतिभा चाहिए और जैनागमों का सम्यक्तया परिज्ञान होना चाहिए । जिस को जैनागमों का पर्याप्त बोध हो; उनके पूर्वापर सम्बन्धों की पूर्णतया जानकारी हो तथा उन में निराबाध गति से जी -

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