Book Title: Jain Syadvadamuktawali Author(s): Buddhisagar Publisher: Vadilal Vakhatchand Zaveri View full book textPage 4
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir M E -.-- . प्रस्तावना. जैनतवन शान मनुष्योना आत्माओने परमात्म स्वरुप अपें छे-जैन तत्त्वना षणा ग्रंथो छ-केटलाक जैन न्याय ग्रंथो एवा छे के मोटा मोटा परितोयी तर्नु रहस्य बराबर सयजी शकाय. बाळजीवोने समजवा माटे जैन स्याद्वाद मुक्तावली नामनो ग्रंथ रचनामां आव्यो छे. आ ग्रंथ अमोए लहिया पासेथी लीधो हतो. पण बांचवायी मालुम पडओँ के, मा ग्रंय छपाशे तो जन न्यायना ग्रंथोमा प्रवेश करवा पाटे प्रथमाभ्यासी जनाने सरलता थशे अमदावादवाळा प्रवेरी शा. भोगीलाल (मंगळभाइ) ताराचंदने आ ग्रंथ संबंधी हकीकत कही. त्यारे तेमणे पोतानी तरफथी छपाववानी परजी जणाबवाथी परितोनी म्हायची यथामति संशोधन करी मुद्राकित कर्यो छे. आ ग्रंथमा जे कंइ अशुदि रही गह छे तेने सुपारी अशुदि एदि पत्रक आप्युं छे. _स्यादाद मुक्तावली ग्रंथना कर्ताः आ ग्रंथना कर्त्ता तपागच्छीय पंडित मुनिवर्य श्री यशस्वत्सागर गणि छे. सेमनुं जीवनचरित्र जाणवामां भाव्यु नथी. कया देशमा विशेषतः विचरता हता ते नकी करवानुं बाकी रहे छे तो पण गुजरात मारवाड, वगेरे देशमां विचरता हो एम अनुमान याय छे. संवत १७२० लगभगनी सालमा तपागच्छमा आचार्य श्री विजयप्रभसूरीश्वर थया. तेमना धर्म राज्यमा उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी तथा श्री विनयविजयजी वगेरे समय महा मानी मुनिरानो यएका छे. श्री विजयममसरिना शिष्य श्री पंडित कल्याणसागरजी गया. वेमना शिष्य पंडित यासागरजी यया. तेमना शिष्य हित श्री.यशस्वत्सागरगणि यया.. भी यशस्वत्सागरजी चारित्रसागजीनी पासे भया For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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