Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 04
Author(s): Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 17
________________ प्रस्तावना कराया था। दूसरे लेख (क्र. १३१ ) में सन् १०४५ में इस गणके कुछ आचार्योंका वर्णन है। इस समय चावुण्ड नामक अधिकारोने मुगुन्द प्राममें एक जिनालय बनवाया था। अन्य दो लेख (क्र० ६११ तथा ६१२) अनिश्चित समयके निषिधि लेख हैं। इनमे पहला लेख इस गणके शान्तवोरदेवके समाधिमरणका स्मारक है। ___ यापनीय संघका दूसरा गण पुन्नागवृक्षमूल गण चार लेखोंसे ज्ञात होता है (क्र० १३०, २५९, १६८, ६०७)। पहले लेखमें सन् १०४४ मे इस गणके बालचन्द्र आचार्यको पूलि नगरके नवनिर्मित जिनालयके लिए कुछ दान दिये जानेका वर्णन है। इसी लेखके उत्तरार्धमें सन् १९४५ में इस गणके रामचन्द्र आचार्यको कुछ दान दिये जानेका उल्लेख है । इस गणका अगला उल्लेख ( क्र० २५९) सन् ११६५ का है। इसमें इस गणको गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है - मुनिचन्द्र - विजयकीर्ति -कुमारकीति विद्य - विजयकीति ( द्वितीय )। शिलाहार राजा विजयादित्यके सेनापति कालणने एक्कसम्बुगे नगरमे एक जिनालय बनवाकर उसके लिए विजयकीति ( द्वितीय ) को कुछ दान दिया था। एक लेखमें ( ऋ० १६८ ) वृक्षमूलगणके मुनिचन्द्र त्रैविद्यके शिष्य चारुकीति पण्डितको कुछ दान दिये जानेका वर्णन है - यह सन् १०९६ का लेख है । एक अनिश्चित समयके लेख (क्र० ६०७ ) मे भी वृक्षमूलगणके एक मन्दिर कुसुमजिनालयका उल्लेख है। हमारा अनुमान है कि इन दो लेखोंका वृक्षमूलगण पुन्नागवृक्षमूलगणसे भिन्न नहीं होगा। यापनीय संघके कण्डूर गणका उल्लेख तीन लेखोंमे है ( क्र. २०७, ३६८,३८६ ) इनमे पहला लेख १२वीं सदीके पूर्वार्धका है तथा इसमे १. पहले संग्रहमें पुन्नागवृक्षमूलगणके दो उल्लेख सन् ८१२ तथा सन् १९०८ के हैं (क्र. १२४, २५० )।

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