Book Title: Jain_Satyaprakash 1947 02 03
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ वर्ष १२ वर्षीय तारण संशोधक मंडल है जिसके मंत्री बा० ज्ञानचंद्र बो. ए. उत्साही व्यक्ति हैं। पाठकोंकी जानकारीके लिये तारण समाजका कुछ वर्णन यहां किया जाता है । तारणसमाजके प्रवर्तक श्री तारणस्वामी थे । इनके पिताका नाम गढा साहु था, जो परवार जातिके एक सेठ थे और पुष्पावती नगरीमें रहते थे तथा दिल्लीके बादशाहके यहां कर्मचारी थे। इनकी धर्मपत्नी वारश्री थी। इस दंपताके घर तारणस्वामीका जन्म अगहन सुदि ७ सं. १५०५को हुआ। इस समय दिल्हीमें अलाउद्दीन सयदका राज था। दो वर्ष पीछे बहलोल लोदी बादशाह हुआ। जब बालक तारण पनि वर्षके हुए तो इनके पिताके उपर भारी विपत्ति आइ, जिसके कारण वे पुष्पावतीको छोड कर मालवा देशमें चले आए और खिमालासे के निकट 'गडौला' ( जिला सागर, तहसील खुरई) में ठहर गये । यहां एक श्रुतमुनिने तारणको देख भविष्यवाणी कही कि यह बालक बड़ा महाःमा होगा। इस पर गढा साहु गडौलासे चल कर टॉक स्टेटमें से परखेडी (बासौदा स्टेशनके पास) आये। वहां एक जैन से के साथ मिल कर व्यापार करने लगे और पुत्रके विद्याभ्यासका उचित प्रबन्ध कर दिया । बालक चतुर था, शीन हो जैन शास्त्रोमें पारंगत हो गया। इसे छोटी उमरमें ही वैराग्य उत्पन्न हुआ । कहते हैं कि बड़े होने पर भी इन्होंने शादी नहीं की। कुछ काल पीछे घर छोड कर ब्रह्मचारी या मुनि हो गये । मल्हारगढ (ग्वालियर स्टेट, मुंगावली स्टेशनसे तीन कोस )में ठहर कर योगाभ्यास करने लगे और साथ ही गांवोनगरोंमें घूम कर अध्यात्मगर्भित उपदेश देने लगे। इससे इन्होंने पांच लाख जैनी बनाये। ये जाति पांतिका विचार किये बिना हर किसीको जैनमतमें शामिल कर लेते थे। इन्होने सं. १५७२, ज्येष्ठ वदि ६ शुक्रवारको समाधि मरणसे शरीर छोड़ा । उस समय सिकंदर लोदीका राज था। इनके कई शिष्य हुए, जैसे-लक्ष्मण पांडे, चिदानंद चौधरी, परमानंद विलासी, सुल्पसाह तेली, लुकमानशाह मुसलमान । स्वामीजोके अनुयायी तारणतरण समाज कहलाते हैं। बर्तमान कालमें इनकी संख्या १०,००० के लगभग होगी, जो मिर्जापुर, बांदा, मध्यप्रान्त और मध्यभारतमें पाये जाते हैं। ये लोग चैलालयके नामसे सरस्वती भवन बनवाते हैं और वेदी पर शास्त्र विराजमान करते हैं। उसके सामने जिन भगवानकी उपासना होती है। ये दिगम्बर शास्त्रों को मानते और पढ़ते पढ़ाते हैं। इनमें जिनप्रतिमाके पूजनका रिवाज नहीं, परंतु तो भो ये तीर्थों और जिनप्रतिमाके दर्शन करते हैं। तारणस्वामीने अपने समयको परिस्थितिको देखकर जिन प्रतिमाको गौण कर दिया, क्योंकि वे उस मुसलमानी कालमें जगह २ मूर्तिपूजाका खंडन होता देख रहे थे। इस For Private And Personal Use Only

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