Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 03 04
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ૧૮ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ ८ उन्होंने तीर्थकर नामकर्मका बंध किया वे भी श्रेणिककी नरकगतिको नहीं रोक सके, तो क्या ये उच्च करणीयें नहीं थी ? या श्रेणिक इन कार्योंके अयोग्य था ? श्रेणिकने भाव तीर्थकर महावीरको वंदना तो की थी तो क्या तीर्थकरको वंदन करना उच्च क्रिया नहीं है ? वास्तव में मूर्ति पूजाको उडाना यह सत्यका अपलाप, और भवभ्रमणको वृद्धि करना है। श्रेणिक पूर्वायुबंधके कारण ही नरकम गये हैं, यही वास्तविक उत्तर है, इसलिये श्रेणिककी मूर्ति पूजाके बारेमें टीका करना निरर्थक है। श्रेणिक ‘भवभ्रमण हारिणी सकाम निर्जराकी करणीके योग्य नहीं था' यह बात भी डोसीजीकी झूठी है। नरकको रोकनेवाली बंदनक्रिया, नामस्मरण, और अमारीप्रवर्तन नहीं थे ? और नरकको रोकनेवाली क्या ये पुण्यक्रियाएं नहीं होती है ? वास्तवमें तो रतनलालजी उलटे राह पर चल रहे हैं जिससे नरकसे रोकनेवाली इन सब पुण्यक्रियाएँ होने पर भी सकाम निर्जरा तक दौडना पडता है,और सकाम निर्जराके कारणीभूत नामस्मरण वंदनादि क्रियाऑको भूलाया जाता है। वास्तवमें मूर्तिपूजा किसी भी व्रतमें नहीं ऐसा कह कर मूर्तिपूजाको अकरणीय बतलाना अज्ञानता है, क्योंकि धर्मप्रभावना, समकित, प्रभुका नामस्मरण, गुरुवंदनादि क्रियाएं भी श्रावकके बारह व्रतमें नहीं है, फिर भी वह करणीय ही हैं। इस प्रकार मूर्तिपूजा भी किसी व्रतमें समाविष्ट न होने पर भी वह करणीय ही है। आगे जाकर वे लिखते हैं कि 'इतना ही नहीं व्रतकी घातक है' यह कथन पक्षपातसे भरा हुआ है क्यों कि पूजा तो व्रतकी साधक है पूजाकी श्रद्धा जिनमें नहीं उनमें समकित नहीं, समकित नहीं तो कोई भी चारित्र नहीं, चारित्र नहीं तो मोक्ष नहों। प्रभुपूजाको हमने अनेक लेखसे शास्त्रसिद्ध कर दी है। 'मूर्ति के लिये स्थावर ही नहीं त्रस तककी जानबूझकर हत्या की जाती है' लिखना सरासर मूढता है। ‘उसे (समकितको) भी दूषित करनेवाली मूर्तिपूजा है' यह भी विरुद्ध है, साक्षात् उपर मैंने दिखला दिया है कि रतनलालजीने मूर्तिपूजक समाजपर असत्य आरोप रखकर अपनी आत्माको दूषित बना लिया है, इसमें कारण मुर्तिपूजाका द्वेष है। मूर्तिपूजाका द्वेष व्रतको भी मलिन करता है, और पापको बढानेवाला है-मूर्तिपूजा तो मोक्षप्रदायिनी ही है। संघपट्टककी भूमिका, जिसमें अगम-निगमकी बात की है, वह प्रमाण नहीं हो सकती है, ऐसे तो कई भाषामय ग्रंथ मिलते हैं, क्या ये सब प्रमाण हो सकते हैं? प्राचीन टीकाकारोंका कथन नहीं मानना और अपने मनःकल्पित मतलबका समर्थन करनेवाले आजकलके भाषा ग्रंथकी पंक्तिये उठालेना इससे कोई सिद्धि नहीं हो सकती, उससे सिर्फ पक्षपातका समर्थन हो सकता है जो आत्माका सर्वथा अहित करनेवाला है। ऐसे पक्षपातसे शासनदेव सर्वका रक्षण करे, यही भावना । For Private And Personal Use Only

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