Book Title: Jain Satyaprakash 1940 09 Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org મૂલાચાર [७] प्राभृत की टीकाएं बनी। धवल जयधवल वगैरह बने। 'आं० कुन्दकुन्द प्रमुख ने भी ग्रन्थ बनायें और महापुराण भी बना। अव दिगम्बरीय आचरन्थ की कमिना थी। दि. माचार्य ने उसेका बहुत अधिक ध्यान रखा। और कमशः आचारमन्थ भी बनने लगे। दि. मंध में अग्रिम "मूलभ" है इससे भय से पहले मृदाचार का निर्माण हुआ। मूलाचार ग्रन्थ वट्टेरक आचार्य ने रचा है। भाषा प्राकृत है। उसमें १२ परिच्छेद है। उस ग्रन्थको टीका आवसुनन्दी ने वि० मं० १५१६ में बनाई है। श्रीमान नाथूरामजी प्रेमी ने माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला-हीराबाग बम्बई की और से ( ग्रं. नं. १५ व २३ म) मटीक छपवाया है । सारा मूलाचार, प्रथम भाग में उल्लिखित पद्धति के अनुसार उपलब्ध जिनागम और श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों से ही बनाया है। इमीले यहां शुरू में उस बात की जांच की जाति है। परिच्छेद १-मूलगुणाधिकार, गाथा ३६ इसमें परिग्रह के लिए भी जिनागम का ही अनुसरण किया है। गाथा ४ व ९ में लिखा है कि-संगविमुक्ति ही पांचयां महाव्रत है । जीवनिबद्ध, जीवअबद्ध व जीवसंभव परिग्रह का तो सर्वथा त्याग करना और इसके सिवाय के परिग्रह में ममत्व नहीं रखना। गाथा २२ से २८ में जिनागम के अनुसार ६ आवश्यक बतलाए हैं, जिनका त्रिवर्णाचार १२-१६ एवं सूअखंधो ६. से भेद है। परिच्छेद २ बहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तवाधिकार गाथा ७२ (३७ से १०७) जिनागम में १० पईनय (पयन्न) उपलब्ध हैं जिनमें मुख्यतया अनशन मलेषणा, अंतिम प्रत्याख्यान व संथारा विधि का ही विधान है। आउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान) एवं महापचक्खाण की गाथाएं उठा कर इस दुसरे परिच्छेद की सांगोपांग रचना हुई है । मैं यहां समन्वयज्ञान के लिये आउर २ मूलाचार में प्रतिभेद भी मिलता है। पंडित सुखलालजी ने हिन्दी पंचप्रतिक्रमण में आवश्यक निर्युक्त व मृलाचार ५०७ की गाथाओं का मिलान किया है। जिसमें गा० नं० ५०४ से ६७७ लिखे हैं। प्रस्तुत मुद्रित प्रति में उन गाथाओं का नम्बर ३ मे १८० तक है । इस हिसाब से प्रस्तुत प्रति से पं. सुग्वलालजीवाली प्रति में ४ गाथाएं कम हैं, यानि प्रेमी जी की प्रति में २५ से ३३ तक की गाथाओं में से कोई ४ गाथा अधिक है। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने “जैनाचार्यों का शासनभेद" पृ० ३७ के फुटनोट में "बावीसंतित्थयग०" गाथा का नम्बर आवश्यक नियुक्ति से १२४६ व मूलाचार से ७,३२ उल्लिखित किया है। प्रस्तुत ग्रंथ में उस गाथा का नम्बर ७,३६ है। इसीसे प्रतिभेद का ठीक पता चलता है। For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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