Book Title: Jain Satyaprakash 1940 09
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२०] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ १ नदी के प्रवाह की तरह प्रवाह से अनादि मानते हैं, अतः जैसे बीज में अङ्कर पैदा करनेकी शक्ति प्रवाह से अनादि की है, मगर वह बीन भुज दीया जाय बाद अङ्कर उत्पन्न नहीं कर सकता, ऐसे ही अनादि से राग-द्वेष के कारण कर्मबद्ध होता हुवा भी, जब श्रद्धा-ज्ञान-संयम द्वारा राग-द्वेष को जला देता है, तब वह अबद्ध बनकर अजन्मा हो सकता है, याने मुक्त बन सकता है, और आत्मा में रहे हुए अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त चारित्र-सुख को प्राप्त कर मुक्तावस्था को पा सकता है। जैनदर्शन में माने हुए आठ कर्म ये है-पहिला ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान को रोकता है। दूसरा दर्शनावरणीय कर्म सामान्य बोध को रोकता है। तीसरा वेदनीय कर्म सुख-दुःख का कारण है । चौथा मोहनीय कर्म राग द्वेषादि प्रवृत्ति का निमित्त है। पांचवा आयुष्य कर्म किसी भी स्थान में उत्पन्न जीव का उस स्थान में कायम रहना इसी कर्म से होता है, जब इस कर्म से बंधी हुई स्थिति पूरी हो जाती है, तब वह मरकर जो दूसरी गति का आयुष्य कर्म बन्धा हो, वहां चला जाता है। चलने में बन्धे हुए कर्म ही कारण है, मतलब कि इस कर्म के प्रभाव से जीना होता है। षष्ठम नाम कर्म से शरीरों की रचना श्वास भाषा-मनादि का निर्माण होता है। सातवें गोत्र कर्म से उच्च नीच आदि कहलाना और आठवें अन्तराय कर्म से दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य आदि की रुकावटें होती है। इन आठ कर्म के बन्ध आश्रित १२० भेद, उदय में १२२ और सत्तामें १५८ भेद होते हैं। इन सब की उत्तर प्रकृति के विचार से लेख का कलेवर बहुत ही बढ जाने के भय से संक्षिप्त विचारणा करने का ही इरादा रखा है। पहिले ज्ञानावरणीय कर्म के मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्यवज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय ये पांच भेद होते हैं। पांच इन्द्रिय और मन से होते हुए ज्ञान को रोकना इसे मतिज्ञानावरणीय कहते हैं। यह मति में हरकत खडी करता है । शाब्दिक ज्ञान में बाधा डालनेवाला कर्म श्रुतज्ञानावरणीय कहलाता है। आत्मा में जगत के रूपी पदार्थ मात्र को देखने को ताकत है, इसे अवधिज्ञानावरणीय रोकता है। और ४५००००० योजन के परिमाण में रहे हुए मनुष्यक्षेत्र के संज्ञी-मनवाले प्राणि के मन का ज्ञान करने की आत्मा में शक्ति है, इसे मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म रोक देता है। और दुनियाभर की रूपी और अरूपी, पुदगल, जीव, धर्मास्तिकायादि चीजों को, देखने की शक्ति. जिसे कैवल्यज्योति कहते हैं, उसको जो अटकाता है, उसे केवलज्ञानावरणीय कहते है। मूल कर्म ज्ञानावरणीय एक है इसके उत्तर भेद ये पांच हैं । आत्मा में देखने की शक्ति होने पर भी यह कर्म, नेत्र की दर्शन शक्ति को रोकनेवाले उसपर लगाये हुए पाटेकी तरह, रोकता है । हां इतनी बात जरूर है-कि जैसे पाटे के वस्त्र की तारतम्यता से गाद वस्त्र के पाटे से कम दिखाई देता है, For Private And Personal Use Only

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