Book Title: Jain Satyaprakash 1940 09
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 45
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org અંક ૧] શ્રી કાવીતીર્થવિષય લેખ મેં સંશોધન [४] है कि मूलनायकजी के साथ में ही सं. १६४९ मार्गशीर्ष सुदि १३ को हुई होगी। (३) रत्नतिलक प्रासाद के मूलनायक श्रीधर्मनाथजी पर श्रीविजयसेनसूरिजी द्वारा सं. १६५५ मार्गशीर्ष सुदि ५ गुरुवार को प्रतिष्ठा किए जानेका यद्यपि लेख उत्कीर्ण है तथापि उस समय में श्रीविजयसेनसूरिजी अहमदाबाद में थे जैसा कि श्रीविजयदेवमाहात्म्य सर्ग ७ के निम्न श्लोकों से प्रकट है: "दर्श दर्श ततः सूरि क्षणयुक्तः प्रतिक्षणम् । विद्याविजयनामायं गणिरित्यब्रवीद् ध्रवः ॥३॥ षोडशस्य शतस्याऽस्मिन् पञ्चपञ्चाशवत्सरे । श्रीमत्यहम्मदावादोपपुरे श्रीशकन्दरे ॥४॥ कारितायाः प्रतिष्ठाया उत्सवे भूरिरैव्यये । श्राद्धेन लहुआकेन स्ववंशाम्भोजभास्वता ॥५॥ प्रशस्यचेताः श्रीसूरि रिसरिद्विपोपमः । पण्डितपदमानन्दि तस्मै पुण्यात्मने ददौ ॥६॥ मार्गशीर्ष सिते पक्षे प्रकृष्टे पञ्चमीदिने । देशदेशसमाहूतजनवृन्दविराजते ॥७॥" इसका समर्थन श्रीविजयप्रशस्तिकाव्य सर्ग १६ श्लोक ३२ से ३४ तक से भी होता है । इन दोनों प्रमाणों से जाना जाता है कि सं. १६५५ मार्गशीर्ष सुदि ५ को अहमदाबाद में लहुआ श्रावक ने श्रीशान्तिनाथजी की प्रतिष्ठा श्रीविजयसेनसूरिजी से कराई थी। उसी समय में श्रीमेघविजयजी को उपाध्यायपद और श्रीविद्याविजयजी को पंन्यास(पण्डित)पद दिया गया था । अतः इन धर्मनाथजो को या तो अहमदाबाद में प्रतिष्ठा कराके पीछे यहां पर लाकर विराजमान किए अथवा निर्दिष्ट तिथि को उनके ही किसी शिष्य द्वारा यह प्रतिष्ठा कावी में हुई और साथ में डाबी बाजुवाले श्रीशान्तिनाथजी और श्रीसंभवनाथजी, जिनपर श्रीविजयसेनसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठा किए जाने का लेख विना संवतादिके है-और जमणी बाजुवाली विना लेखकी दो मूर्तियां जुमले चारों मूर्तियों की भी प्रतिष्ठा उक्त तिथि को ही उन्हीं के आज्ञानुवर्ती साधु ने की कि जिन्होंने मूलनायकजी की प्रतिष्ठा की। (४) रहा रत्नतिलक प्रासाद में परिकर की दो मूर्तियां और सर्वजित प्रासाद में विराजमान एक श्री आदिनाथजो की चरण पादुका, जिनपर गुजराती सं. १६५६ वैशाख सुदि ७ बुधवार को खंभातवालों द्वारा श्री विजयसेनसरिजी ने प्रतिष्ठा की, ऐसे लेख उत्कीर्ण हैं। अधिक संभव है कि इन तीनों की प्रतिष्ठा कावी में न होकर खंभात में ही श्रीकीकाठक्कर की कराई हुई प्रतिष्ठा के साथ में हुई होगी जिसका उल्लेख श्री विजयप्रशस्ति काव्य सर्ग १७ श्लोक ६० में है। अतः इन की प्रतिष्ठा खंभात में होजाने के बाद फिर ( देखो पृष्ठ ४५) For Private And Personal Use Only

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