Book Title: Jain Satyaprakash 1940 09
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir જેનદન કા કર્મવાદ (२१. पतले वस्त्र के पाटे से ज्यादा दिखाई देता है, और इससे भी पतले वस्त्र से और भी ज्यादा दिख पडता है इसी तरह ज्ञानावरणीय की तारतम्यता से ज्ञान की कमी बेशी होती है, जब उस कर्म को जड से उडा दिया जाता है तब निखिल पदार्थ को देखनेवाली आत्मा बन सकती है, जिसको केवलज्ञान के नाम से जैनदर्शन मानता है, इसे अन्य दर्शनकार ब्रह्मज्ञान कहते है। पाठकों को विचारना चाहिए कि ज्ञान का अभाव इस कर्म से मानने में, मदिरा के अंदर रही हुई बुद्धिविनाशिनी शक्ति की तरह, इस पौद्गलिक कर्म में ऐसी ही शक्ति मानना और उसे ज्ञानाभाव का प्रेरक समजना युक्तियुक्त्त है। अगर हम ज्ञानाभाव का प्रेरक प्रभु को माने, तब हम जड बनेंगे क्योंकि हम ज्ञानदाता का उपकार मान सकते है, न कि अज्ञानदाता का। कर्म से इस सृष्टि का सर्जन मानना हमें प्रभु की अवहेलना से बचाता है, और न्यायमार्ग में निरत रखता है। केवल प्रभु पर आधार रखनेवाले यही कहेंगे कि हमारे में अज्ञानता का दान प्रभु की महेरबानी है, उन सज्जनों से हम सविनय प्रश्न करते है कि-भाइसाहेब! जब अज्ञानता से हम अपराध करें त तो यह भी प्रभु की महेरबानी हुई क्यों? और ऐसा होने से यह हमें उसका फल किस तरह दे सकता है? मेरे इस कथन से पाठकों को यद ख्याल अवश्य आया होगा कि दुनिया में अज्ञान ने जो अन्धेर मचा रक्खा है वह इसी कर्म का प्रभाव है और ये पांच उत्तर प्रकृति और एक मूल प्रकृति पाप कर्म के नाम से कही जाती है। ज्ञानी सज्जनों के सम्मान-पूजन-प्रोत्साहन से यह कर्म क्षीण होता है, और जैसे जैसे यह क्षीण होता है, वैसे वैसे हमारी बुद्धि निर्मल बनती जाती है । बारहवे गुणस्थान के अपूर्व अनुष्ठान से यह कर्म किसी किसी भव्यात्मा का सर्वथा क्षय हो कर चला जाता है तब वह भव्यात्मा, दिव्य केवलमान की ज्योति का आविर्भाव करता है। और मिथ्यात्वगणस्थान में वीतराग प्रभु की घोर आशातना, संपूर्ण सदाचारी व्रतस्थवीरों की विराधना और धर्ममार्ग की अवज्ञा से इस ज्योति को चारों ओर से घेरा लगाकर, इसका अत्यधिक तिरोभाव करता है, फिर भी इस कर्म की ऐसी ताकत नहीं है कि इसकी संपूर्ण ज्योति को छिपा सके, चाहे इतने बद्दल क्यों न चढ आवे, वे दिन को रात नहीं बना सकते, वैसे ही यह कर्म जीव को जड नहीं बना सकता, यानि उसको अमुक चेतना गिरि हुई हालत में भी कायम रह जाती है। यह ज्ञावावरणीय कर्म की पांच प्रकृति बन्ध में, उदय में और सत्ता में एकसी है। आत्मा को कर्म से लिप्त करनेका नाम बंध है, इसके फल को भुगतने का नाम उदय है, और आत्मा में इसका कायम रहने का नाम सत्ता है । कोटि संख्या को कोटि से गुना जावे और जो संख्या आवे उसे कोटिकोटि कहते है, ऐसी तीस कोटिकोटि की इस कर्म की उत्कृष्टी स्थिति है-यानि एक वख्त बंधा हुआ कर्म इतने काल तक अपना फल बतलाता है। सिर्फ तीन हजार वर्ष तक वह चुपचाप आत्मा में पड़ा रहता है, जिसका नाम अबाधाकाल है। इतना काल कम समझना चाहिए। [ क्रमशः ] For Private And Personal Use Only

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