Book Title: Jain Satyaprakash 1938 08 SrNo 37 38
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 182
________________ 3 १-२] જન આગમ સાહિત્ય [१४] भी फेरफार क्यों है इत्यादि विषय की चर्चा किसी अन्य लेखमें कि जागगी। आगमसाहित्य संबंधी प्रश्न-अब आगमसाहित्य संबंधी कतिपय प्रश्न सहज उद्भव होते हैं वे लिखता हूं। आगमतस्ववेत्तागण समुचित उत्सर देनेका अनुग्रह करें: १ आगमसाहित्य व उनके रचयिता संबंधी उल्लेख प्राचीन ध नवीन प्रामाणिक ग्रन्थों में कहां कहां प्राप्य हैं ? २ नंदीसत्र में निर्दिष्ट सभी आगम उस समय उपलब्ध थे? आगम रूपसे मानने योग्य क्या इतने ही ग्रन्थ थे? नंदी के रचयिता श्री देववाचक श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ही हैं या भिन्न ? प्रश्न पद्धतिमें हरिश्चन्द्रगणिने दोनोंको भिन्न माना है । यदि देववाचक भिन्न हैं तो उनका अस्तित्व काल क्या है ? ३ पक्खिसूत्र के रचयिता ध रचनाकाल क्या है ? इनमें जो ५ ग्रन्थों के नाम अधिक हैं वे नंदीमें क्यों नहीं है ? उनमें से अभी अनुपलब्ध आगम कब विनष्ट हुए? ४ अंगों के साथ उपांगों का संबंध जोडना कितना प्राचीन है ? उपांगरूपसे मान्य ग्रन्थ कबसे उपांग-कल्पनामें आए व वे पहले कितने थे? उनका रचनाकाल तथा कर्ता (पनवणा के अतिरिक्त) कौन है ? इसी प्रकार छेद ग्रन्थोंकी संख्या ६ व मूलकी ४ कबसे निश्चित हुई ? अंगों के साथ उपांगोंका संबंध कहां तक ठीक है? ५ आगमोंकी संख्या ४५ कबसे निश्चित हुई ? संख्या व नामसूची सबसे प्राचीन कौनसे ग्रंथमें है ? ४५ आगमों में नंदीमें उपलब्ध कई आगमोंको छोडकर पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति जैसे नियुक्तिमयोंको क्यों सामिल किया गया ? आगोकी संख्या ८४ कही जाती है उसका कोई प्राचीन उल्लेख या नामसूची लभ्य है? ६ महानिशीथ के उद्धार कर्ताओंके ८ नाम आते हैं वे समकालीन नहीं, तब उन्होंने मिलकर कैसे उद्धार किया? बृहत् टिप्पनिका आदिमें उनकी तीन वाचनाओंका जिक्र है वे तीनों अभी उपलब्ध हैं ? ७ अंगोंकी पद-प्रमाण संख्या द्विगुण कहां तक ठीक है ? वह संभव पर भी कैसे हो सकती है, क्योंकि भगवती तकके ग्रंथ इतने परिमाणमें उपलब्ध हैं और ज्ञाता, उपाशकादि इतने छोट रूपमें ही कैसे याद रहे ? पदका परिमाण क्या? नंदीके समय या ग्रंथलेखनके समय क्या वर्तमा. मानमें उपलब्ध पदप्रमाण (ग्रंथाग्रन्थ) ही आगम थे ? For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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