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श्रीवादिदेवसूरि लेखकः-श्रीयुत नथमलजी बिनौलिया. श्रीमद्देवगुरौ सिंहासनस्थे सति भास्वति ।
प्रतिष्ठायां न लग्नानि, वृत्तानि महतामपि ॥ श्री प्रभाचन्द्रसरि । इस बातको व्यतीत हुए साडे आठ सो वर्ष व्यतीत हुए हैं जबकि आबू के आसपास का प्रदेश अष्टादशसती नामसे प्रसिद्ध था। उसके अन्तरगत महाहृत नामक एक नगर था जो कि बड़े बड़े पर्वत और हरी हरी झाडियोंसे घिरा हुआ था। इसी नगर में पोरवाड़ वंश का एक गृहस्थ रहता था। उसका नाम वीरनाग था। उसकी पत्नीका नाम जिनदेवी था। स्वभावमें शान्त, शिक्षित और रूपमें रम्भा समान थी। इस दम्पती में गाढ़ प्रेम होने के कारण इनका गृह संसार आनन्दपूर्वक चलता था ।
एक समय जिनदेवी रात्री को सोती हुई थी, उस समय उसे एक स्वप्न आया। वह स्वप्नमें यह देखती है कि, मानो चन्द्रमा उसके मुंहमें प्रवेश कर रहा है। यह स्वप्न देखकर वह जाग उठी और पंचपरमेष्ठिका स्मरण करने लगी। प्रातःकाल स्नानादिसे निवृत्त हो जिन मन्दिर गई । प्रभु के दर्शन कर गुरुवंदन करने गई उस समय वहां तपगच्छीय आचार्य मुनिचन्द्रसूरि बिराजते थे । उनका ज्ञान सागर समान गम्भीर और चरित्र चन्द्रसे भी अधिक निर्मल था और उपदेश में उनका सानी रखनेवाला दूसरा कोई न था ।
जिनदेवी ने गुरुदेवको भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और रात्रीमें आया हुआ स्वप्न गुरुमहाराजके समक्ष निवेदन कर उसका फल पूछा । गुरुमहाराज स्वप्नशास्त्र के निष्णात थे अतः उन्होंने कहा, “बहिन ! इस स्वप्न के फल स्वरूप तुम एक चन्द्र समान पुत्रको जन्म दोगी, जिसका प्रकाश समस्त भूमण्डल पर पडेगा।
जिनदेवी गुरुदेव के उपर्युक्त बचन सुन कर प्रसन्न होती हुई अपने घर लौटी। नौ मास सात दिन के पश्चाद गुरु महाराज के कहे अनुसार वि० सं० ११४३ को जिनदेवीने एक महान तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दीया । जिस समय बालक गर्भमें आया उस समय माताको चन्द्रमा का स्वप्न आया अतः उसका नाम पूर्णचन्द्र रक्खा गया। पूर्णिमाका चन्द्र जब अपनी सम्पूर्ण कलासे विकसित होता है तब वह शनैः शनैः घटने लगता है। किन्तु पूर्णचन्द्र तो बालेन्दु के सदृश दिन प्रति दिन बढता जाता था। इस प्रकार पूर्णचन्द्र खेलते कूदते बडा हुआ।
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