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म
१०-१३]
શ્રી વાદિદેવસૂરિ
[३७६]
नही कर सका? उस समय एक पुरुष ने निवेदन किया कि महाराज! अपने नगर में देवसूरि नामके श्वेताम्बर आचार्य हैं वे बहुत बड़े विद्वान् हैं । वे अवश्य इस श्लोक का अर्थ कर देंगे। ___ यह बात सुन राजाने देवसूरि को सत्कार पूर्वक अपनी राजसभा में बुलाए । उन्होंने उस श्लोक का यथार्थ अर्थ कर दीया। इससे राजा, प्रजा तथा स्वयं देवबोध पण्डित भी उन पर प्रसन्न हुए।
विक्रम सम्बत् ११७८ में श्री मुनिचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हुआ । इससे देवसूरि को जबरदस्त आघात हुआ, किन्तु मनको धीरज दे शासन सेवा में लग गए। यहां से मारवाड़ की ओर विहार कर वे नागोर शहर में आए। उस समय वहां के राजा आह्लादनने उनका अच्छा स्वागत किया। उस स्वागत में देवबोध पण्डित भो साथ थे। उसने सूरिजी को देखते ही एक भक्तिपूण श्लोक कहा:
यो वादिनो द्विजिह्वान, सारोपं विषमानमुद्रित:'।
शमयति स देवमूरि-नरेंद्रवंद्यः कथं न स्यात् ॥१॥ अर्थ-जो भयङ्कर अभिमान रूपी विष को उगलने (डंख मारने) वाले वादी रूपी फणिधरों को शान्त करते हैं वह देवसरि राजाओं को वंदनीय कैसे न हो?
सूरिजीने राजा को धर्मोपदेश देकर जैनधर्म का रागी बनाया। उन्होंने कुछ समय उस नगर में स्थिरता की। इसी अर्से में सिद्धराज जयसिंह ने नागोर शहर के उपर जबरदस्त सेना के साथ चढाई की। जब उसे यह ज्ञात हुआ कि देवमूरि यहां विराजते हैं, तब वह बिना कुछ किए पीछा लौटा। इससे सिद्ध होता है कि सिद्धराज के उपर देवसूरि का कितना प्रभाव होगा?
यहां से विहार कर सूरिजी कर्णावती नगरी में आए और चातुर्मास भी यहीं रहे। यहां श्री नेमिनाथजी के मंदिर में धर्मोपदेश देने लगे। इनका उपदेश इतना सचोट और प्रभावशाली था कि उसको सुनने के वास्ते प्रत्येक जाति तथा धर्मवाले आते थे। जिन जिन ने इनका उपदेश सुना वे समस्त जैनधर्मी हो गए।
एक समय कर्णाटक के राजा जयकेशी के माननीय पण्डित कुमुदचन्द्रजी गुजरात में आए। वे दक्षिण के महान पण्डित माने जाते थे और दिगम्बरों के आचार्य थे। उन्होंने अपने वाद में चोरासी वादियों को हराया था। यहां ये वादिदेवसूरि की कीर्ति सुनकर उनको हराने के वास्ते आए थे। कुमुदचन्द्र ने सिद्धराज जयसिंह से वादिदेवसरि के साथ शास्त्रार्थ करने को कहा। इस पर से सिद्धराजने दोनों के वादविवाद
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