Book Title: Jain Satyaprakash 1938 05 06 SrNo 34 35
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10-14] શ્રીરાદિદેવસૂરિ समस्त सभा देवमूरि पर मुग्ध हुइ। मूरिजी का यह भाषण सुन कुमुदचन्द्र निरुत्तर हो गए। उनका मुह निस्तेज हो गया और जिस प्रकार ड्रबता हुआ मनुष्य तिनकोंका सहारा लेता है, उसी प्रकार अन्य कुछ न सूझने पर उसने देवमूरि के वाक्यों में व्याकरण की एक भूल निकाली किन्तु वह भूल थी ही नहीं। उस मम्बधी मत लेते हुए उत्साह पंडितने स्पष्ट कहा कि देवमूरि का शब्द व्याकरणकी दृष्टि से शुद्ध है। यह सुनकर कुमुदचन्द्र बिलकुल ठंडे पड गये । सभापतिने अन्य सदस्यों का मत लेकर निर्णय प्रकाशित किया कि देवमूरि की विजय हुई और कुमुदचन्द्रकी पराजय हुई है। इससे देवसरि की सर्वत्र विजय घोषणा हुई। यह वाद लगातार पन्द्रह दिन तक चला और इसकी नोट राज्य के दफतर में लो गई। उम प्रसंगकी याद के वास्त सिद्धराज जयसिंह एक लाख द्रव्य और बारह गांव भेट करने लगा, किन्तु देवमूरिने अपने साधुधर्मानुसार उसे स्वीकार करने की स्पष्ट मना की। जब अधिक आग्रह किया गया तब उस द्रव्यसे श्री ऋषभदेवजी का मन्दिर बनवाया गया। उसकी प्रतिष्ठा के अवसर पर श्री देवसरि के साथ अन्य तीन आचार्य भी उपस्थित थे। कुमुदचन्द्र की हार होने से वह दक्षिण की ओर लौट गए। वादिदेवमूरि के परम भक्त नागदेव और थाहड नामक श्रीमन्त श्रावक ने इस विजय के उपलक्ष में बहुत बडा उत्सव किया और हजारों का दान दिया। वादके समय उपस्थित रहे हुए कलिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य आदि पण्डितोंने इस वादकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। इसके पश्चात् के ग्रन्थकारोंने भी इसकी खूब प्रशंसा की है । " मुद्रितकुमुदचन्द्र” नामक नाटक भी इस प्रसंग को याद रखने के लिए लिखा गया है। वादिदेवमूरिने अनेक वाद विवाद कर इस विषय में जो गम्भीर अनुभव प्राप्त किया, उस अनुभव का वर्णन उन्होंने " स्याद्वादरत्नाकर" नामक ग्रन्थ में लिखा है। स्याद्वादरत्नाकर प्रमाणनयतत्त्वालोक की बडी स्वोपज्ञ टीका है। उसमें अनेक वाद भरे हुए हैं । उसका विषय गहन होते हुए भी उसकी भाषा प्रौढ, सुन्दर तथा सरल है । कहा जाता है कि यह सारा ग्रन्थ चौरासी हजार श्लोकोंका था। वर्तमान में उसके लगभग पच्चीस हजार श्लोक मिलते हैं । शेष श्लोकों का नाश मुसलमानों के हाथ से हुआ है या किसी भंडार में पडे है। ठीक ठीक नहीं कहा जाता । इसके अतिरिक्त उनके बनाए हुए भिन्न भिन्न ग्रन्थों की सूचि निम्न लिखित है: (१) प्रमाणनयतत्वालोक (२) स्याद्वादरत्नाकर (प्रथम ग्रन्थ को टीका ) । (३) जीवानुशासन । (४) मुनिचन्द्राचार्यस्तुति । (५) गुरुविरहविलाप । For Private And Personal Use Only

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