Book Title: Jain Satyaprakash 1936 07 SrNo 13
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिगम्बर शास्त्र कैसे बनें? लेखक--मुनिराज श्री दर्शनविजयजी (प्रथम वर्ष के अंक ११ से आगे) प्रकरण ७ कुन्दकुन्दाचार्य शआवश्यकनियुक्ति, उत्तराध्ययनसूत्र और विशेषावश्यक-भाष्य वगैरहकी वृत्ति से पाया जाता है कि-"वीरनि० सं० ६०९ यानी विक्रम सं० १३९ में दिगम्बर मत चला । इस मत को चलाने वाले शिवभूति नामक मुनि थे । शिवभूते मुनि नग्न रहते थे ! संभव है कि पीछी व कमण्डलु का स्वीकार बाद के दि० मुनिओंने किया हो । उनके दो शिष्य थे: १ कौडिन्य और २ कोट्टवीर । ये कौडिन्य ही दिगम्बर समाज के प्रधान आचार्य कौण्डकुन्द हैं। उपर्युक्त शास्त्रों के अनुसार आपका समय विक्रम को दूसरी शताब्दी का मध्ययुग है । मुनि शिवभूतिजीने " श्री संघ" के (जैन संघ के) प्रतिपक्ष में एक नये संघ की स्थापना की, और वह संघ प्राचीन है ऐसा भ्रम फैलाने के लिये उस संघ का नाम रक्खा गया मूलसंघ ! कोण्डकुन्दाचार्य मूलसंघ के प्रधान पुरुष हैं। आज लाखों की संख्या में विद्यमान दिगम्बर समाज आपकी ही बदौलत है यानी मूलसंघ (दिगम्बर ) के साधू, साध्वी, श्रावक और श्राविका की परंपरा आपकी ही संतान हैं । आपने आचारांगसूत्र आदि के प्रतिपक्ष में व दिगम्बर मान्यता के पक्ष में कई ग्रन्थ बनाये जो उपलब्ध हैं। बदि शिवभूत्तिजी और भूतबलीजी को एक मान लिया जाय तो प्रतीत होता है कि कुमार-दक्षिण में आ० पुष्पदंत से दीक्षित होनेवाला भानजा ( भागीनेय ) ही कौण्डबन्द होने । इस मान्यता के अनुसार “आ० पुष्पदंत व आ० भूतालोजीने “कर्मप्राभृत" (करसंडाम) रथा, और आ० कोण्डकुन्दने उन आगमों की पहली-दीका की" इस ऐतिहासिक घटना का भी समन्वय हो जाता है । ४६. जैसे काश्यप, नायपुत्त, गौतम, गांधीजी, नहेरु, पटेल, देहलवी, बोगदकर, भावनगरी वगैरह उपनाम है, कौडिन्य भी वैसा ही उपनाम हो तो कोई आश्चर्य नहीं। प्राचीन गोत्रो में एवं शहरों में "कौडिन्य" नाम का पता लग सकता है। For Private And Personal Use Only

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