Book Title: Jain Satyaprakash 1936 07 SrNo 13
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૧૮ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ શ્રાવણ इस प्रमाण से पाया जाता है कि --- कुन्दकुन्दाचार्य ने गुद्रपिच्छ का नया लिंग चलाया है । असल में जैनश्रमण वस्त्र, पात्र के धारक थे। मुनि शिवभूतिजी के संप्रदाय ने ममत्व के बजाय वस्त्र - पात्र को ही परिग्रह माना और एकांत नग्नता स्वीकार की । किन्तु इन जैनश्रमण और इतर दर्शन के नग्न साधु में कुछ फर्क न रहा, अतः परिचय के लिये लिंग भेद की आवश्यकता थी इस लिये कुन्दकुन्दाचार्यजीने मोरपिच्छिका स्वीकार की । कितनेक दिनों के पश्चात् आ० कुन्दकुन्द की मोर - पिच्छी गुम हो गई और उन्होंने सहसा गृद्ध के पिच्छ से मारपिच्छ का स्थान पूरा कर दिया । प्रश्न किया कि -- आपने यह क्या किया ? आचार्यजी ने उत्तर दिया कि मैं श्री सीमंधर स्वामीजी के पास में जाता हूं । अकस्मात् रास्ते में मोरपिच्छी गिर गई अतः मैंने यह पिच्छिका स्वीकार ली, इसमें बेजा. क्या है ? इसे रखने में भगवान् सीमंधर स्वामी की सम्मति है, इत्यादि । किंन्तु इस उत्तर से सब लोगों को संतोष न हुआ और किसीने यह बात सच्ची मानी किसीने न मानी । किन्तु इतना तो अवश्य हुआ कि लोगों ने आपका नाम " गृद्धपिच्छ " रख दिया । ५० यह देखकर लोगोंने "6 43 www.kobatirth.org ५० कुन्दकुन्दाचार्य की सन्तान में मयूरपिच्छ, गिद्रपिच्छ, बलाकपिच्छ, चंवर-पिच्छ इत्यादि कई लिंग भेद हैं । और सब अपने अपने बाह्य लिंग को अच्छा मानते हैं ! (२) कुन्दकुन्दाचार्यकी अनिश्चित गुरुपरंपरा: १ - श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी - शिष्य श्री चंद्रगुप्तसूर - शिष्य कुन्दकुन्दाचार्य | देखिये प्रमाण -- 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनंदी प्रथमाभिधानः श्रीकण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यः, सत्संयमादुद्गतचारणधिः ॥ — श्रवणबेलगोल - शिलालेख नं० ४०, श्लोक ६ शक संवत् १०८५ 'गृद्धपीड" ऐसा अनशन का भी एक भेद है । artage कैरिह कौण्डकुन्दः, कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्तिविभूषिताशः । यश्चारुचारणकराम्बुजचंचरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ॥ - श्र० शि० नं० ५४, श्लोक ५, शकसंवत् १०५० तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला । भौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रः स कुण्डकुन्दोदितचण्डदंडः ॥ - श्र० बे० शि० न० १०८, श्लोक १०, शक संवत् १३५५ For Private And Personal Use Only

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