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समीक्षाभ्रमाविष्करण
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[ याने दिगम्बरमतानुयायी अजितकुमार शास्त्रीए “ श्वेताम्बरमतसमीक्षा "मां आळेखेल प्रश्ननो प्रत्युत्तर ]
लेखक - उपाध्याय श्रीमद् लावण्य विजयजी महाराज
( गतांकथी चालु )
क्या साधु चर्मका उपयोग भी करे ?
त्रिज बात ए सूचवामां आवी हती के - - चामडु शरीरने सुख पहांचाडवा माटे छे। आना जवाबमां जणाववानुं जे वस्त्र करतां चाडु वधारे सुखकारी छे, आ वात कोइ पण अक्कलवाळो मानी शके तेवी नथी । कदाच भाग्ययोगे लेखकनी आ बात जो साची पडी जाय तो तो कापडीयाना बार ज वागी जाय अने चर्मकारने तो फुरसद ज मळे नहि ।
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के
कदाच लेखक एम कहे के वस्त्र करतां चामडु वधारे सुखकारी छे एवं अमे कहेता ज नथी, अमारुं तो कहेतुं मात्र एटलं ज छे चामडु शरीरने सुख पाचाडनार छे । आ बाबत पण लेखकने पूछवामां आवे छे के शुं चामड वस्त्रथ वधारे सुख आपनार छे? अथवा वस्त्रना जेटलं ज सुख आपनार छे? अथवा तो वस्त्र करतां ओलुं सुख आपनार छे ! वस्त्रथी वधारे सुख आपनार छे एम जो कहता हो तो ते व्याजबी नथी ।
कारण के जो तेमां बधारे सुख होय तो जगतना सुख-प्रधान जीवो वस्त्र छोडी छोडीने चर्म परवानी प्रवृत्तिवाळा थइ जवा जोइए, अने थयेला देखाता नथी ।
कदाच एम कहेवामां आवे के चर्म aa करतां वधारे सुखकारी ज छे परंतु हिंसाना भयशी लोको वापरता नथी तो आ वात पण व्याजबी नथी, कारण के जे लोको हिंसाने मानता नधी अथवा हिंसको छे ते केस बनो त्याग करीने चर्मने वापरता नथी ?
वना जेवुं ज चामडामां मुख हे एम जो कहता हो तो ते पण व्याजबी नथी, कारण के वस्त्रनी जेम चामडु पहेरवामां पण लोकोनी प्रवृत्ति थइ जवी जोइए, अने छे नहि ।
कदाच एम कहो के वस्त्र करतां चामडामा ओछु सुख छे तो एना जवाबमां auraवानुं जे औत्सर्गिक वस्त्रनुं विधान छे
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