Book Title: Jain Satyaprakash 1936 01 SrNo 07
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir હિંગબર શાસ્ત્ર કેસે બને? - - १. सामायिक-सामायिक भेदकथन। ९. कल्प-व्यवहार-कल्पअकल्पनिर्णय २. चतुर्विंशतिस्तव–२४ तीर्थंकगं एवं ऋषिआचार । की स्तुति । १०. कल्पाकल्प ---द्रव्यक्षेत्रकाल ओर ३. वन्दना-----किसी भी एक तीर्थकर भावसे कल्पविचार ।। को विशेष वन्दन । ११. महाकल्प—जिनकल्पि व स्थविर४. प्रतिक्रमण ...-- रात्रिक, दै सिक, कल्पिका कल्प-अकल्प । पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, इर्यापथिक १२. पुंडरिक-~-देवगतिके निमित्तरूप व उत्तमार्थ प्रतिक्रमण । दान-पूजाका स्वरूप । ५. वैनयिक----पांच प्रकारके विनय३३ १३. महापुंडरीक-इंद्रादि पदके हेतु ६. कृतिकर्म--आगम, धर्म, चैत्य व रूप महातपका स्वरूप । गुरुको बन्दन, ३ प्रदक्षिणा, ३ नमन्कार १४. निशीथ—प्रायश्चित्त व १० (४-सरसु) १२ आवर्त पन्दनविधि वगैरह। छेदका निरूपण ।। ७. दशवकालिक --- गोवर्गविधि व दिगम्बरमान्यतानुसार आगमप्रवाह का पीधिति के १० काल अध्ययन | कर्ता काल नान्न प्रकार हैश्रीशायाधि केवली-----१ गणधर सुधर्मास्वामी, २ ८. उत्तराध्ययन- ....२२ परीषह, उप- जम्बूस्वामी । सं० ६२ पर्यन्त । सर्ग सहनविधि, प्रश्नोत्तर। १४. पूर्वधारो-३ विष्णुकुमार,४ ४ ३३. दिगम्बर शास्त्रोंमें इस पांचवे प्रकीर्णक यानी पांचवे आवश्यकके निमित्त भिन्न भिन्न मान्यतायें हैं , जो हम प्रकरण २ की टिप्पणीमें बता चुके हैं । दिगम्बर आचार्य देवसेनसूरिके दर्शनसारको गाथा १८ के अनुसार दिगम्बर आचार्य भिन्न भिन्न वैनयिक मतों की उत्पत्ति मानते हैं । ३४. श्रीजम्बूस्वामीके प्रधान शिष्य श्री प्रभवस्वामीजी हैं। इनका दूसरा नाम विद्युचर है, (आचार्य गुमद्रकुत उत्तरपुराण, पर्व ७६, श्लोक ११७ से १२०), तीसरा नाम भव है (उत्तरपुराण, पर्व ७६, श्लोक १२०)। ये गच्छनायक थे, एवं वाचनाचार्य भी थे। किन्तु दिगम्बर शास्त्रोंमें विष्णुकुमारको वाचनाचार्य माना है। संभव है कि विष्णुकुमार भिन्न आर्य हो या आजीवक मतसे आए हुए मुनिके शिष्य हो या बिलकुल कल्पित हो। For Private And Personal Use Only

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