Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 5
________________ ( ४ ) एक निश्चित कालमर्यादा में रहता हुआ अपने पूर्वकृत कर्मों का भोग तथा नवीन कर्मों का बन्धन करता है । कर्मों की इस भोग-बन्धन की परम्परा को तोड़ना भी उसकी शक्ति से बाहर नहीं है। ( कोई एक पौद्गलिक अवस्था, जिसमें नरक भी है, सदैव अनन्त अग्नि में जलने, दांत पीसने या रोते रहने की अवस्था नहीं है । ) ४. जन्मजात व्यक्तिभेद कर्मजन्य है। व्यक्ति के व्यवहार तथा सुख-दुख में जो असामञ्जस्य या असमानता नजर आती है वह कर्मजन्य ही है। ५. कर्मबन्ध तथा कर्मभोग का अधिष्ठाता प्राणी स्वयं है। इसके अलावा जितने भी हेतु नजर आते हैं, वे सब सहकारी अथवा निमित्तभूत हैं। विश्व षड्द्रव्यों से प्रणीत है। ये द्रव्य अनादि-अनन्त सदैव और स्वयमेव विद्यमान हैं । उनमें से एक द्रव्य ‘अजीव' है । वह प्रायः वही है जिसे वर्तमान में विज्ञान 'मेटर' कहता है। 'जीव' के प्राणतत्त्व के विपरीत यह अप्राणतत्त्व है जो अस्थिर और अनन्त परिवर्तन स्वभावी है। जन विचारानुसार 'अजीव' तत्त्व प्राणी के शरीर में 'जीव' तत्त्व के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध में तो है ही, साथ ही उसके अनुसार सोचने से, बोलने से या क्रियाशील होने से प्रतिक्षण उस 'अजीव' द्रव्य के सूक्ष्म परमाणुओं को प्राणी आकर्षित करता रहता है। इसके मूल में प्राणी के चिन्तन, वाणी और क्रिया की तीव्रता भी कारण बनती रहती है। कर्म को कार्य करने के लिए बाहरी शक्ति की जरूरत नहीं है। वह स्वयमेव क्रियाशील है। क्रोध, मान, माया और लोभ जो लीला रचते हैं उसका अलग प्रकरण है। यह विषय बड़ा गम्भीर है । जैन दार्शनिकों ने इस पर उतने ही विस्तार से आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है। इस ग्रन्थ का दूसरा हिस्सा आगमिक प्रकरणों से सम्बन्धित है । इसका एक प्रकरण योग और अध्यात्मविषयक है। हर एक प्रकरण में विद्वान् लेखकों ने ज्ञात साहित्य का विस्तृत परिचय दिया है । खोज के मार्ग में यह परिचय बहुत उपयोगी होगा। ___इस ग्रन्थ को विद्वज्जगत् और जनता के अध्ययनार्थ प्रस्तुत करके अति संतोष का अनुभव करते हैं। रूपमहल हरजसराय जैन फरीदाबाद मन्त्री, ३०. १२. ६८ श्री सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति अमृतसर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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