Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 4
________________ प्रकाशकीय (प्रथम संस्करण) जैन साहित्य के बृहद् इतिहास का यह चतुर्थ भाग है। इस दिशा में हम आधा मार्ग तय कर चुके हैं। हमारा शेष श्रम और भार हल्का हो गया अनुभव हो सकता है। प्रस्तुत भाग के विद्वान् लेखकों के प्रति प्रकाशक आभार व्यक्त करते हैं। उन्होंने उचित परिश्रम से जैन साधारण और विशेष पर महान् उपकार किया है। जैन वाङ्मय के अध्ययन की एक दिशा को सुगम एवं सरल बनाया है। इस भाग के विषयों में जैन दर्शन का परम अंग 'कर्मवाद' भी है। लेखकों ने इस ग्रन्थ के प्रारंभ में हो उसके संबंध में विवरण दिया है। गुरु नानकजी ने अपने अतुलनीय शब्दों में इसी भाव को "करनी आपो आपनी, क्या नेड़े क्या दूर" से उसके प्रथम पाद को कि "चंगयायियां बुरयायियाँ वाचे धरम हुदूर" की स्पष्टता की है । लेखकों ने 'कर्मवाद' के पाँच सिद्धान्त इस प्रकार लिखे हैं : १. प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई फल जरूर होता है। दूसरे शब्दों में कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती। २. यदि किसी क्रिया का फल प्राणी के वर्तमान जीवन में नहीं मिलता तो उसके लिए भविष्य में जीवन धारण करना अनिवार्य है। ( यह तर्क संगत है। प्राणी का जीवन पौद्गलिक ( भौतिक ) शरीर के साधन से ही व्यतीत होता है। पुद्गल ही 'जीव' का अनादि काल से साथी है और उसके भवान्तर का कारण है।) ३. कर्म का करनेवाला और भोगनेवाला स्वतन्त्र आत्मतत्त्व एक भव से दूसरे भव में गमन करता रहता है। किसी न किसी भव के माध्यम से ही वह १. पवन गुरु पानी पिता माता धरत महत । दिवस रात दोरा दाई दाया खेले सगल' जगत ॥ चंगयायियाँ बुरयायियाँ वाचे धरम हुदूर" । करनी आपो आपनी क्या नेड़ें क्या दूर ।। जिनही नाम व्याया गए मुसक्कत घाल। नानक ते मुख उजले कीती छुट्टी० नाल ।। १. सकल । २. अच्छाइयाँ। ३. बुराइयाँ । ४. देख रहा है । ५. दूर से या अलग से । ६. समीपस्थ हो । ७. या दूर हो। ८. कष्ट । ९. नष्ट कर गए। १०. उनके मुख उजले तो हुए ही, साथ ही छुटकारा भी हो गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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