Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah

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Page 194
________________ १६७ सापि पेज वली जेहरे। तेह तणी वात कहुं अंते, कहेतां नावेछेहरे ॥ ऋषि० ॥ २९ ॥ २८ अठावीस वरस लगी तप कीधा, ते सुघला कह्या एमरे । आगल वलि करस्य सषि) (पंजो, ते आणस्ये तेमरे ॥ ऋषि० ॥ ३० ॥ (ढाल ३-जो.) कषि पंजरोज मुनिवर वंदूं, मानुभाव मुनिसर सोहेरे । करेत साकरों भवियण, जण प्रतिबूजवे मन मोहेरे ॥ऋषिक ॥३१॥ धन कुली कणबी जाणिये, बाप गोरी ते पण धन्नरे। धन धनबाई कूखमां, ऊपनो एह रतनरे । ऋषिः ॥ ३२॥ धन विगळचंद्रसूरि जिणे, दीक्षा, दीधी निज हाथरे । धन श्रीज्यचंद्र, गच्छधणी, जसु साधु रहे एह साथरे ॥ ऋषि०॥ ३३॥ भान ते तपसी एहवो, पूजा कृषि सरिसो नहीं दीसेरे।। तेहनें वांदतां विहरावतां, हरखे हीयडो हीसेरे ऋषि०॥३४॥ एक वइरागी एहवा, श्रीपासचंद गच्छमांहि सदाइरे । गुरु गिरुआ गछमांहि,श्रीपासचंदररि पून्याइरे॥ऋषि० ॥ ३५ ॥ संवत सोल अठाणुये, श्रवण पंचमी अजुवाइरे । रास) भण्यो रलीयामणो, राणी समयसुदर (गुण गाइरे ॥ ऋषि० ॥३६॥ कुल तप उपवास ११३२३. इति महातपस्वी श्रीपूंजामुनिरासः श्रीखरतरगच्छीयविद्वद्वर्यश्रीसकलचंद्रोपाध्यायविनेयवाचनाचार्यश्रीसमयसुंदरगणिना कृत: संशोधितश्च श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छाधिराजयुगप्रवरसकलागमरहस्यवेदिविश्ववंद्यानवद्यविद्याविशारदश्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरशिष्यमुनिसागरचंद्रेण स्वपरकल्याणाय ॥

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