Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah
View full book text
________________
१८४
. पडीम अट्ठ सातेंरे, अणजिमे जिमें अहोरातें । उपवासें मा न करेरे, ग्राम बाहिर ग्रीषम शशरे ।। १२६ ॥ नरतिरीय देवना कीधारे, उपसर्ग सहीनें सीधा । तमु नामे भवजल तरियेंरे, आठ कर्मतणो खय करीये ॥। १२७ ।। जव मध्य चंद्र हिव प्रतिमारे, जे करे साधु ते नितमा । सुद पडिवाथी प्रारंभीरे, एक कवल आदि आरंभी ॥ १२८ ॥ पूनम दिनि पनरह लीजेरे, किण्ह पडिवे पन्नरह कीजे । अमावस कवलह एकूंरे, एक मास करे नर छेकू ॥ १२९ ॥ वज्र मध्य पमिति धारोरे, किण्ड पडिवे पर विचारो । अम्मावसि पडिवे इकेकोरे, पूनम दिनि पनर विवेको ।। १३० ।। जब मध्यति जव जिम धूलरे, वज्र जाडो विहुं छेहि मूळ । जब बिहु पासे आणि आळोरे, वज्र मध्ये कुशलंकाळो ॥ १३१ ॥ तिणे अवसर जाति संपन्नारे, एक मात पक्षि पडिपुन्ना कुल पिता पक्षि जे पूरारे, बलवंत संघयणे सूरा ॥ १३२ ॥ रूप सुंदर जसु आकारोरे, गुरु भगति विनय गुण धारो । विनाण सप्पि सवि जाणेंरे, दंसण समत्त वखाणे ॥ १३३ ॥ चारित्त समति संजुत्तोरे, लज्जा अपवाद विरत्तो । लाघव द्रव्य भावें जोवोरे, द्रव्य औषधि अल्पगुण होवो ॥ १३४ ॥ भाव गाव त्रिणि विरहीयारे, ए गुण संपुन सवि कहिया । एक ओयंसी मन धीरारे, तेयंसी सुकंति सरीरा ॥ १३५ ॥ सौभाग्य गुणे वच्चंसारे, दिशि विदिशि प्रसिद्ध जसंसा | क्रोध मान माया लोभ जीप्यारे, इंद्रिय विषे नहु लीप्यां ॥

Page Navigation
1 ... 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252