Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah
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चाले, इसी ऋद्धियें नरवरू । भंगार माथे लोकनें करी, ताल वृंतति सुंदरू ॥ मस्तकें धर्या वरछत्र चामर, बेहुं पासें ढाल ए। सर्व रिद्धि द्युति बलें आदियें, राज पदवी पालए । ३६४ ॥ सवि समुदायें सादर करी, सर्व विभूतिय विभूसा देह धरी। सघलें संभ्रम सर्व पुष्प गंध ए, मल्लालंकारें सर्व समिधए ।।-समृद्धि सघळे शब्द नादें, महा रिष्ध्यादियें करी ! वर तुडिय तिह समकालि वाजें, शंख पणव ने जल्लरी ॥ पडह भेरी खरमुहि ने, उडुक मुख मुथंग ए। निर्वाष दुंदहितणो वाजे, देवनी परें चंग ए ॥ ३६५ ॥ नगरी मांहीथी एणीपरि नीसरें, मुख मंगल सुभ कीरति करें। जय जय नंदा जय जय भद्द ए,भद्द तुह्म होज्यो एहवो सदए॥तुमि अजित जीपो, जिता पालो वैरीने वली बंधु ए। जिय मझिव वसज्यो, इंद्रनी परि देव जेम सुबंधु ए॥ असुरमाहि जेम चमरो नागमाहें धरण ए। तारमज्झे जेम चन्दो, भरह जिम नर सरण ए ।। ३६६ ॥ चिरकाल जीवो वरस घणां तुझे, सयनें सहस्सा लाख कई अह्मे । निर्दोष सघलो परिकर तुह्म होज्यो, हठ तु चित्ता परमाउ पालज्यो ।।पालज्यो राज इट्ट जणे सहिया, चंपा नगरी आईए । गाम आगर नगर खेडा, कुडब द्रोणमुख गाईयें ॥ मडंब पट्टण आस मणिगा, संवाहने संनिवेस ए। एहनु प्रभुतापणुं पालो, भोग जाव विशेष ए ॥ ३६७ । नेत्र माला सहसें जोता जाइये, हृदयमाला सहसें लोक वधावियें । मनोरथ

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