Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah
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२१३ शीखा धारी, जटा धारीय पीछिणो ॥ हासकारक डमर चाटुअ, कारका कंदप्पिया। कोकईय कीट्टा करा चाले, नृपादिकने छ प्रिया ॥३६०॥ वाजिन वांतां गातां गीत ए, नाटक करतां लोक विदीत ए । हासुं करतां भाषा बोलतां, शिख्या देतां पडतां राखतां ॥-रांखतां वचन सुणावता केई, शब्द जयजयकार ए। प्रचुंजता आगले चाले, राय चित्तें धार ए । एकसो अठोत्तर प्रवर घोडा, जलमती किंकरें ग्रह्या । हस्ती अट्ठोत्तरसयं स्थवर, सयमठोत्तर संग्रह्या ॥ ३६१ ॥ रथ सछत्रा सघंटा सज्झया, पताका सहिया तोरण संजूया । बारह तूर वाजे छे तिहां, न्हानी घंटा जालीयारा जिहां ॥-जिहां हेमवंतना तिनिस दारुय, सार पईडे छे जड्यो । वर्तुलाकारे चक्रधारां, निपुण सूतारें घड्यो ॥ वर तुरय जोच्या अंछे सारहि, निपुण ते आयुधे भर्या, छत्रीस ग्रंथ प्रसिद्ध जाणो, राय आगल विस्तर्या ॥ ३६२ ॥ अनुक्रमे आगल पालियार चाल ए, सांगर्ने भाला हाथें वाल ए । तोमर त्रिमूला लोह जडी लाकडी, भिंड माल धणुहं जिहां पणचां चडी ॥-चडिय मूरपणे सेवे ते, सुहडमाहि शिरोमणी। कूणीक राजा राज लच्छी, दीपे जेम चिंतामणी ॥ हस्ति खे) चडयो शोभे, ऐरावण जिम इंद्र ए। सेन चउबिह सहित दीपें तारमाही जिम चंद्र ए ॥ ३६३ ॥ भंभसार नंदन पुण्णभद्द चेईयें, आवें जबही सेवक सेवियें । आगल दीसे आसने आसवरा, उभओ पासे नागा नागवरा ।।-वर पूंठ रथ संगेलि

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