Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah
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आसन प्रदानं बेसणों दीजें, सकार वस्त्रादिक कीजेंरे । अभ्युत्थानादिक सम्माणं, कितिकर्म वंदन कहीजेरे ॥ धन० ॥ २४९ ॥ अंजलि ते कर युग जोडीजे, आवत सनमुख जावेंरे । बेसें ता तमु सेवा करियें, जातां तसु पहुचावेरे ॥ धन० ॥ २५० ॥ अणच्चासायण विणय तेहना, भेद पेतालीस भाख्यारे । अणच्चासायण (नर) भत्ति बहुमाणं, वण्ण संजलणा दाख्यारे
धन० ।। २५१ ।। अरिहंत अरिहंतधम्म आयरिया, जब ज्झाया थेर पंचरे । कुल गण संघ किरिय संभोई, मत्याईक नाग पंचरे || धन० ॥ २५२ ॥ एक सामाचारी संभोगी, किरिया किरियाबादीरे । पनर भेद ए पनर भगतिना, पनर वणवणा आदीरे ॥ धन० ।। २५३ सामायिक छेदोपस्थापन, परिहार सुहुमसंपराएरे । यथाख्यात चारित पण भेदें, एहनो विनय कराए || धन० ॥ २५४ ॥ मण विणयाना भेद दु कहिया, अपसत्य अने पसत्थारे । अप्रसस्त निवर्तन द्वारे, प्रवर्तन तेय पसत्यारे ॥ धन० ।। २५५ अप्पसत्थ सावध प्रमुख ते, तेहना अनेक प्रकारारे। सावद्य सक्रिय सककस कडूअं, निटूर फरस विचारारे ॥ धन० ॥ २५६ ॥ अण्हय छेद भेद परितावण, उपद्रव कर वळी जेयरे । भूत प्राण उपघात करंजे, न करे मुनिवर तेयरे || धन० ||२७|| हिंसादिकस्युं जे मन वरतें, सावद्य तेय कहांएरे । कायिकादिक किरिया सहियं सक्रिय एणि परि भाएरे ॥ धन० ॥ ।। २५८ || कर्कशभाव सहित वली कडूउं, आपण पण नहु
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