Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah

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Page 232
________________ २०५ संसार करम ते जाणज्योए ! कसाय कोह माण माय, लोभ ते चोथो ए, छडे तेय वखाणज्यो ए ॥ ३२२॥ संसार ते च्यार प्रकार, नारक तियेच, मणुय देव जिणवर कह्या ए। ए चिहुँ गतिना हेतु, मिच्छत्तादिक, च्यार छंडेवा ऊवह्या ए॥ ज्ञानावरणी ऑदि, कर्म ते आठ ए, बंध हेतु जिण टालीये एं, ज्ञानतणो प्रत्यनीक, निन्हव आदें ए, एणि परि सवि संभालीये ऍ॥ ३२३ ॥ द्रव्य भाव विउसग्ग, एणि परि मुनिवर; बारह भेदें तप तपे ए। श्रीजिनवरने पास, अहंनिश बेठा ए, पूरव संचिय कर्म खपे ए॥ आचारांगी एक, एक द्वितय अंग, जाव इकारसे गणो एं। एक वाचन ये एक, पूछे वलीय, गणे एक अणुपेहिणो ए ॥ ३२४ ॥ कथा आखें वणी एक, एक विखेवणी, संवेयणी णिव्वेयणी ए । तत्वप्रते मन जेण, आणे श्रोतानो, मोहथी वालि आक्षेपणी ए॥ कुंमागथकी श्रोतार, पाछो वालिये, ते कहीये विखेवणों ए। मोक्ष सुख अभिलाष, सुणतां ऊपजे, ते जाणो संवेयणी ए॥ ३२५ ।। सुणतां थायें विरत्त, जेण संसारथी, ते भाखी नीव्वेयणी ए। कथा कहे च्यार कोई, ध्यान करे कोई, शिव सुख आराधन भणीए ॥ ऊरध ढींचण सोस, नीचो पण करी, ध्यान कोठारमा ऊमयाए। संयम' तप करी आत्म, भावत संचरे, रोग दोष विणं एक थया ए ॥ ३२६ । अभ्यंतर छ प्रकार, तप सूधो करें, भवसागर हेले तरे ए.। कथा ते चिह प्रकार,ऑक्षेपणिं आदें,संभलि भवियण संवर घरे ए|श्रीपासचंद्र

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