Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah
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लाष तमु ऊपरें ए । देवादिक उपसर्ग, आवें भय नही, अव्यथन तिह मन ठरे ए ।। ३१७ || सुहम पदारथ कोइ देवादिक कर्यो, देखी मूढ पणो नही ए । ततखिण जाणे तेय देवादिक तणो, निरमाप्यो एहज सहीए ॥ अथ आलंबन च्यार, खंती मुतीय, अझ मद्दव एहना ए । खमा अनें निरलोभ, सरलपणुं मान, नही एह गुण तेहनाए ॥ ३९८ ॥ अनुप्रेक्षा छे च्यार, अव्वाया असुभा, अणुप्पेहा ये श्रुति भणी ए । अनंतवत्तिया तेय, विष्परिणामाणुप्पेहा, ए अनुक्रम गणीए ॥ पावह ठाण अढार, ते सेव्याथकी, अनरथ आगल ऊपजें ए । ए अपाय चिंतेई, असुभनी अणुपेहा, संसार असुभति जीपजे ए ॥ ३१९ ॥ अनंतवत्तिया एह भव संतति तणो, अंत नही कहें सामियाए । सर्व्व वस्तु जगि जेय, परिणाम पालटे, खण खण विप्परिणामियाए । संखेपें दोई झाण धरमसुकल तणा, भेद कह्या गुरुमुख सुणीए । ए ध्यावे जिन पास, बेठा मुनिवर, ते वंदूं भगतियें घणी ए ॥ ३२० ॥ छठ्ठो हिव विसग्ग, तप अभ्यंतर, द्रव्यभाव मुनिवर करें ए । द्रव्यत चिहुं प्रकार, देह गण ओवहीय, भत्त पाण छेह परिहरें ए ॥ शरीर ऊपर नहु राग, गछ असूधोए, छंडे अथ सूधो त्यजें ए । प्रतिमा प्रतिपन जेय, अथ जिनकल्पीय, एकाकी ते वन भजें ए || ३२१ ।। एणि परि उपधि सदोष, अशनादिक चउ, सदोषजाणीनें परिठवें ए । परीसह सहण समत्थ, अथ एणि भावें ए, उवही भात मरण ठवे ए; भावत त्रिहुं प्रकार, कसाय विउसरग,

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