Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah

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Page 214
________________ १८७ निग्रह आदि गुण जुगतारे, जस कीरति करे जण भगता। देहि गौरवर्ण सुभ बुद्धिरे, तक्सी पामे लघु सिद्धी ।। १५९ ॥ सोही सवि जिय हितकारीरे, अथ अकलुष हृदयाधारी । नीयाण रहित यम पालेरे, ऊतावल धस मस टाले ॥१६०॥ संयमथी मन नवि टालेरे, अवहिले सपद पाले । अप्रति लेसा मन वित्तीरे, कोई तोली न सके सत्ती ॥ १६१ ॥ शुद्ध, चारित्रस्युं अतिरातारे, दंता गुरु विनये भगता । प्रवचन आगल फरि विचरेरे, मूत्रने अनुसारें संचरें ॥ १६२ ।। बहु जणनें मुनि आयरियारे, अत्थदायक बहु गुण भरीया । उवज्झाया श्रुत दातारूरे, भव जलनिधि पार उतारू ॥ १६३॥ जे सेव करे तसु जीवारे, मोह पडल नाश गुणि दीवा । अह भव सागर जिन द्वीपरे, बूडत राखे नहु छीपे ॥१६४॥ त्राणं अशुमथी राखेरे, शरणं शुभ कारण भाखे । गति सेवा योग पइठारे, आश्रय जाणी पासे बेठा ॥ १६५ ॥ इच्चाइय गुण बहु दीठारे, श्रीसाधुतणा श्रुति मीठा । हिवं ज्ञान तणा गुण कहीयेंरे, विहुं मिल्ये मोक्ष गति लहीयें ॥ १६६॥ जैन सूत्र अरथ मन आणेरे, पर वादिना मत जाणे । परिचय स्व पखस्युं अति घणरे, ते करें कुंजर जिम न लवण ।। १६७ ॥ एम तपनें गुणि जे सूररे, ते नमीये आणंद पूर । एम भणे श्री समरचंद्र सूरिरे, सवि पातक जाये दूरि ॥१६८॥ ( ढाल-धन्यासिरीः-रिसह जिणपमुह चउवीस जिणवंदिये एदेशी प्रश्न उत्तर नहु कोई छिद्द ग्रहें, रयण करंडनी ओपमा

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