Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah

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Page 215
________________ १८८ 1 ' मुनि लहे । त्रिभुवन हट्ट जिम सर्व लाभे सहु, ईहित अरथना दायका मुनि बहु ।। १६९ ।। परमत मर्दका वादि अंगंजिया, द्वादश अंगधर गणि पीटिकि रंजीया । एकठा ऊचरे - सर्व अक्षर करी, सर्वजण बूझणी भाष भाखे खरी ॥ १७० ॥ अजिण हुंता जिण सारिखा जाणिवा, जिन जिम वागरे एम मन आणिवा । संयमें तप करी आतमा भावए, हीयडले अह निशें प्रभु चरण ध्यावए ।। १७२ ।। श्रमण भगवंतना सीसनी संपया, समति पण गुपति तिय सहीय इंद्रिय जया । अमम ममता विना अने अकिंचणा, ग्रंथि विण ब्राह्य धन धान सवि वज्जणा ॥ १७३ ॥ सोक संसार अथ जेण मुनि छेदीयो, कर्म्म अहय तणो कंचूओ भेदीयो । कंसने पात्र जिम उदक लागे नही, संख जेम रंग विण मुनिवरा सवि कही ॥१७४॥ जीव जेम अप्रतिहत गति जाणिये, कुतित्थि पडणीय प्रति जुति सुवखाणी । गगन जिम गाम नगरादिके अणिस्सिया, वायु जिम अप्रतिबद्ध प्रसंसिया || १७५ || सरस नव उदक जिम 'हियडले निर्मला, पुख्खर पत्र जिम रहित कदम जला । कूर्म्म जिम गोपव्या पंचय इंदिया, पंखि जिम सजन धन मूंकिया विदिया || १७६ ।। खडगीय जीवना श्रृंग जिम एकला, रागनें दोस जसु उपशम्या तेतला । भारंडपंखि जिम अतिहिं अप मत्तया, गज जिम सूर रागादि बलि नहु जिया ॥। १७७ ॥ वृषभ वलवंत जिम भार निर्वाहया, कर्युय पञ्चखखाण पाळे पंच महव्वया । सिंह जिम हरण आदेहि नहु गंजीये, परी -

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