Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah

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Page 217
________________ १९० अप्रति बद्ध विचरे सया, उभय ग्रंथि विना तेय नमुं सया ॥ १८७ ॥ एणि गुणे साधु श्रीवीर जिनवर तणा, अछे छदम, स्थ पण जेह मांहि गुण घणा । भावस्युं श्रीसमरचंद्र तमु पय संथवे, सुणिय भवियण नमो ऊलट नव नवे ॥१८८॥ (ढाल अढईयानी. ) - एहवा वंदो साधु, टाले भव आवाध । दुष्कर तप कर 'ए, बार भेद मन धर ए ॥ १८९॥ अभ्यंतर छह भेद, कर्म करे विच्छेद । समद्रष्टि लहए, बाह्य ते सवि कहए ॥१९० ।। (फाग. दिन सकल मनोहर. ना जेवी देशीमां.) अणसण बेहु भेदें कह्यु ईतर जावत जीव, अनेक प्रकार ईतर तणा नवकारसिथी सीम । परेरिस पुरिमढ नीवीय आंबिलने एकठाण, एकासण उपवासथी छम्मासी ईतर जाण ॥ १९१ ॥ पादपगमनति तरु जिम भोजननो पञ्चख्खाण, भेद दु जावत जीवना जाणे जे हुइ जाण । प्रथम भेद दुष्कर अछे कोई करें ति धीर, अंग उपांग न चालवे जेम निर्जीव सरीर ॥ १९२॥ (काव्य. प्रभु पासजो ताहरु नाम मीठं, ना जेवो देशीमां.) इम पढम संघयणनो धणीय पाले, सुद्ध भावनास्युं सविकरम टालें । व्याघातिमं निर्व्याघाति सींह, दवानल जलंते नहु धरे बीह ॥ १९३॥ कवल त्रीस नरने आहारो, अडवीस तिय कीव चउवीस धारो। अठ्ठ कवल आहार ते अल्प जाणो, सोलें अर्ध चउवीस पोणो वखाणो ॥ १९४ ॥

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