Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah

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Page 212
________________ १३६॥ जीत निद्रा परिसह ठेल्यारे, जीवीत आशा नहु भेल्या । नहु बीहें मरणे आवेरे, भय रहित तेय सुकहावे ॥ १३७.॥ बत्ति महव्वय करीय प्रधानारे, गुण दया आदि शुभ ध्याना । पिंडविशुद्धि आदि गुण करणंरे, महाबतह आदि गुण चरणं ॥ १३८ । हिवं एहना भेद विचारोरे, पिंड तणा भेद चउ धारो। द्रव्य क्षेत्र कालने भारे, पिंड शुद्ध जाणि ते ल्यावे ॥१३९ ।। समिति इरियादिक पंचयरे, बार भावन नही खलखंच । अणिच असरण संसाररे, एकत्व अन्यत्र संभार ॥१४० ॥ असुच्चि) आश्रव वलि संवररे, हृदि भावे नवमी निरजर । हिव लोक सभावो बोहीरे, करे धर्म प्रकासक सोही ॥१४१ ॥ बारह भावन हियडे धरस्येरे, संसार सायर ते तरस्यें । प्रतिमा बारह जे वहस्यरे, ते सकल करम दल दहस्ये ॥ १४२ ॥ पंच इंद्रिय विषया रुंधेरे, पडी लेहण पंचवीश सूधे । चित्त करे गुपत त्रिहुं गुपतारे, अभिग्रह चउपाले जुगता ॥ १४३ ।। व्रत पंच श्रमण धर्मादसविधरे, क्रोध मान माया लोभ चउविध । ए जीता तप बार भेदेंरे, जिण कीधे भव दुह छेदे ॥१४४ ॥ अणसण ईतर जावजीवरे, नयकारसि आदि भव सीमह । नर कवल बत्रीस आहाररे, रमणी अडवीसें सारें ॥ १४५ ॥ एह मांहि ऊण जे लीजेरे, ऊणोद्री एम कहीजे । भिख्खा चरिया अन्न सूधोरे, रस त्याग दही घृत दूध ॥ १४६॥ काय कलेस लुंचादि करीयेंरे, संलीनता तनु संबरिये । ए बाह्य छ भेद अभ्यंतररे, आलोचे

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