Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah
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૨૮૨
तप दिनि, बेठा ध्यान सु निरवहें ए ॥१११॥ नवमी सत्त दिन मान, पूरवनी परें, ए विशेष अधिको भण्यो ए.। ऊकडू ऊत्यो काठ, दंड तणी परें. बेसे सूए ति इम सुण्यो ए ।। दसमी इणि परि जाणी, एह विशेष तिहां, गोदोहिकासने बेसीये ए। आंबां गोटी जेम, कूबडो बाजोट, काहें तेम निवेसिये ए ॥११२॥ अग्यारमी अहोराति, छ? ते तप करी, प्रलंब भुज ऊभो रही ए। बारमी ते एक राति, अष्टम तप धरी, रहे बाहिर काउसग्ग ग्रहीए.॥धृति संघयण संजुत्त, प्रतिमा पडिवजे,सुहगुरुनी अनुमति लहीए। सुद्ध आराधे जेय, ओहिमण केवल,मझइक लहे विगती कहीए ॥११३।। रयणावलि तप किद्ध. काली देवीयें, कणगावली सुकालीयें ए। सिंघनिक्रीडीत लहूय, कीधो महाकाली, श्रेणिक नारी संभालिये ए॥ कण्हा राणी सिंह, महानिक्रीडित, कोधो आतम उधों ए। देवसुकण्हा नारि, सत्तम सत्तमिया, प्रतिमाकरि भवजल तो ए ॥११४।। अहम अहमियाय, नवमी नवमीया, दसमी दसमीया करी ए । च्यारे प्रतिमा एह, अंतगड अंगे ए, कीधी कीरति विस्तरी ए ॥ महाकन्हा लघु सर्व, भद्रवडो भद्र, सर्वत वीर कण्हा वह्यो ए। भद्रोत्तरपतिमा जेह, रामकण्हा वही, अष्ठम अंगें इम लह्योए ॥११॥ पिओसेण कण्हा कीध, तप मुगतावली, पूरी इणी परि मन रलीए । महसेण कण्हा किद्ध, अंबिल वद्धमाण, वानी देखाडी वळी ए ॥ भिख्खू पडिमावार, गुणरत्नादिक, संवच्छर खंदिक को ए । एव माइ चरितानु, जाणो जहठिये,

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