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एकदा गुरुमहाराज वित्रकूटके विये गए, तहां पिण देवता तिसो तरेसे करा, तब सबै श्रावक चतुर्थ व्रतका भंग जानके यह पूज्य पदके योग्य नहि है ऐसा विचार करा कलर्स वर्द्धमान सूरि व्यंतर प्रयोग करके प्रथलीभूत भए थके दिप्पलक प्राममें जा रहे, कितनेक शिष्य पासमें रहे, तय सागर चन्द्राचार्य प्रमुख समस्त साधु घर्ग एकत्र होक, गच्छ की स्थिति रखणे वास्ते, नवीन आवाये स्थापन करना, ऐसा विचार करा, तय नवीनगोरा नाम क्षेत्रपालको आराधन करके, और सर्व देशके खरतरगच्छोय संघकी अनुमति हस्ताक्षर मंगवायके सर्व साधुमंडला
कट्टो करक भाणसोल ग्राम आये, तहां श्रीजिनराजसूरिये एक अपणे शिष्यकों वाचक शोलचन्द्रगणीकेपास पढ़नेकेवास्ते रक्खा था सो समस्त शास्त्रका पारगामी भया, भणसाली गोत्रीय, भादोमूल नाम सं । १४५१ दीक्षा ग्रहण करी, अनुक में पंचवीस वर्षके भए, तब तिनकों योग्य जानके श्रीलागरचन्द्रावायं सातभकाराक्षर मिलाय के सं । १४७५ माघ सुदि पूर्णमासीकेदिन, भणशालो नाटासाहने सवा लक्ष रुपये खरच करके नंदोमहोच्छव सहित सूरि पदमें स्थापन किए ॥ सप्त भकार लिखे है ॥१ भाणसोल नगर ॥२ भणशालिक गोत्रीय ३३ भादो नाम ॥ ४ भरणी नक्षत्र ॥ ५ भद्राकरण ॥ ६ भट्टारक पद ॥ ७ जिनभद्र सूरि ।" (२) श्रीसंजवनाथजी का मंदिर :-यह मंदिर तीन वर्ष में तैयार हुआ था। इसी मंदिर
के नीचे भूमिगृह में जैसलमेर का सब से बड़ा सुप्रसिद्ध जैन भंडार अवस्थित है। जिनभद्रसूरिजी के उपदेश से चोपड़ा गोत्रीय सा० हेमराज पूना वगैरह ने सं० १४६४ में इस मंदिर को बनवाना आरंभ किया और बड़ी धूमधाम से प्रतिष्ठा महोत्सव सं० १४६७ * में कराई । ३०० मूर्तियों को प्रतिष्ठा सूरिजी के हाथ से हुई थी और महारावल वैरोसालजी स्वयं उपस्थित रहकर शुभकार्य सम्पन्न कराये थे । पाचनाचार्य सोमकुजरजी ने प्रशस्ति रची, भानुप्रभगणि पत्थर पर लिखे और शिलावट शिवदेव ने खोदो थो। जिनसुखसूरिजी इल मंदिर को विंब संख्या बाहर के चौक में २००, भीतर चौक में २८१, मंडप में ३६, गंभारे में २५ और भमतो में १२ कुल ५५३ लिखते हैं । वृद्धिरत्नजी मंदिर की मूर्ति संख्या ६०४ लिखे हैं।
(३-४) श्रोशांतिनाथजी और श्रीअष्टापदजी के मंदिर :--ये दोनों मन्दिर एक ही हाते में
हैं। ऊपर भूमि में श्रीशांतिनाथजो का और निम्न तल में श्रीअधापदजी का मंदिर बना हुआ है। निन्न तलके मंदिर में १७ वें तीर्थंकर श्रीकुथुनाथजी की मूर्ति मूलनायक रूप से प्रतिष्ठित हैं। इन दोनों मन्दिों की प्रशस्ति ( लेख नं० २१५४ ) एक हो है और जेनी हिंदी में लिखी हुई है। जैसलमेर के संखवालेचा और चोपड़ा गोत्रीय दो धनाढ्य सेटों ने इन मन्दिरों की प्रतिष्ठा
* वृद्धिरतमाला { पृ०४ ) में मन्दिर प्रतिष्ठा का समय सं० १४८७ बताते हैं परन्तु यह भ्रम है ।
* प्रशस्ति में संखवाल नाम के ग्राम का उल्लेख है। संभव है कि इसो स्थान के नाम से 'संखवालेचा' गोत्र की उत्पत्ति हुई होगी।
"Aho Shrut Gyanam"