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वत्तमान सिंध प्रांत के मालपुर स्टेट में है. नवाब का राज्य था। उनके कोषाध्यक्ष लूणिया गोत्रीय एक धावक थे। उन के दो लड़किया थों जिनको सौन्दर्य को प्रशंसा उन के किसी शत्रुने नवाब से की थी। नवाब ने दूसरे दिन अपनो कुवासना चरितार्थ करने के लिये प्रयत्न करने का विचार किया। किन्तु किसी सजन से ये सब बात उक्त कोषाध्यक्ष को मालूम हो गई। वे इतने थोड़े समय में पा उपाय कर सकते थे। वे विशेष उदास और चिन्तित हुए । इसी बीच में एक यतिजी महाराज श्राषकों का घर खोजते २ आ पहुंचे । श्रावक भी यतिजी का आगमन सुनकर उनके सम्मुख उपस्थित हुए । यतिजी ने उनका मलान मुख देखकर कारण जानने का आग्रह किया। जिस पर उन्होंने सर्व वृत्तान्त कह सुनाया । यतिजी ने कहा कि स्त्रियों और बचों को भेष बदला कर यहां से बाहर कर दो। और तुम लोग कोई पहाना करके अपने २ सामान ऊंट पर लाद सहर के बाहर चले जाओ, सर अच्छा हो होगा। उन्होंने यह भी आदेश दिया कि तुम पीछे फिर कर नहीं देखना और निश्चिन्त रहना । इसी प्रकार जब प्रातःकाल हुआ उस समय ये लोग प्रसार के पास, जहाँ दादा साहब का स्थान है पहुँचे । तब उन लोगों को संकल्प विकल्प पैदा हुआ और यह जानने की इच्छा हु कि कहां तक आये हैं। उन लोगों ने पीछे फिर कर देखा तो महाराज को एक पत्थर पर खड़ा पाया । उस वक्त महाराज ने यह कहा कि यदि थोड़ी देर और पीछे फिर कर न देखते तो जैसलमेर पहुंच जाते । खैर यहां से आध कोस पर ब्रह्मसर ग्राम है और चार कोस पर जैसलमेर सहर है । देरावर अस्तो कोस पीछे रह गयी, अब चिन्ता न करो। यह कह कर वे अदृश्य हो गये ।
___ उस कोषाध्यक्ष ने उसी जगह उस पत्थर पर एक कील से पादुका का चिन्ह करके पूजनीय मान लिया,
और सदेष दर्शन का नियम रखा और वहाँ सान भी निर्माण करा दिया । जब वे लोग जैसलमेर में आकर स्थित रूप से रहने लगे तो बहुधा वहां जाने आने में कष्ट होता था। देदानसर के पीछे को तरफ एक टेकरी आ गई है, वहां से वह स्थान भी दिखाई पड़ता है। इसी कारण वहां दादा साहब को पादुका स्थापित की गई। वहां हमेशा वे पूजा करने जाते थे और उसो पहाड़ पर से उस स्थान को भी नित्य दर्शन करने का नियम रखा था। इसी प्रकार इस स्थान की किंवदन्ती है।
खरतरगच्छाचार्य श्रीजिनदत्तसूरि और श्रीजिनकुशलसूरि बड़े प्राभाविक हुए थे। इन लोगों की असामान्य शक्ति के दृष्टांत में प्राचीन काल से ही बहुत से अलौकिक घटनाओं को कथा मिलती है। सं० १४८१ में उपाध्याय जयसागरजी रवित जिनकुशलसूरिजी का कवित्त पाठकों के देखने में आये होंगे। यही जयसागरजी गणि किले के श्रीपाश्वनाथजी के मंदिर को प्रशस्ति सं० १४७३ में संशोधन किये थे। श्रीसंभवनाथजी के मंदिर की प्रशस्ति में भी इनका नाम है ।
इसी प्रकार पाठक श्रीसाधुकीर्ति रचित श्रीजिनकुशलसूरि का कवित्त बिलसे मृद्धि समृद्धि मिलो' इत्यादि विशेष प्रसिद्ध है। इस स्तवन में देरासर भय टाल दूरे' उल्लेख मिलता है और यह उक्त कथा को पुष्टि करता है
"Aho Shrut Gyanam"