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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
अनुभौ .अभ्यास लहे परम धरम गहे, . . . करम भरम का खजाना खोलि खरचै ।। यों ही मोक्ष मग धावै केवल निकट आवे,
पूरण समाधि जहाँ परम को परचै । भयो निरदोर याहि करनो न कछु और, :
ऐसो विश्वनाथ ताहि बनारसी अरचे ॥
आत्म ज्ञानी भेद ज्ञान (आत्म रहस्य ) के आरे से चीरकर आत्मा और कर्म दोनों की धाराओं को अलग अलग करता है । आत्मा के अनुभव का अभ्यास करके श्रेष्ठ आत्म धर्म को ग्रहण करता है और कर्मों के भ्रम का खजाना खोलकर उसे लुटा देता है। इस तरह मोक्ष के रास्ते पर चलता है जिससे पूर्ण ज्ञान का प्रकाश पास आता है। फिर पूर्ण समाधि में मग्न होकर शुद्धात्मा को प्राप्त करता है तब संसार के आवागमन से: रहित होकर कृत-कृत्य हो जाता है ऐसे तीन लोक के स्वामी ज्ञानी विश्वनाथ को बनारसीदास पूजा करते हैं।
विश्वनाथ का कितना मनोरम वर्णन किया है और उसकी प्राप्ति का विवेचन कितना आकर्षक और हृदय ग्राही है। ज्ञान, क्रिया की एकता
अकेला ज्ञान पंगु है और अकेली क्रिया अंधी है. दोनों मुक्ति के साधक कैसे होते हैं सो सुनिए।
यथा अंध के कंध पर, चढ़े पंगु नर कोय । याके हग वाके चरण, होय पथिक मिल दोय ॥