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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
Nirvanvannu
मन महराज अब तक छिपे बैठे थे। जब पाँचों इन्द्रिएँ अपनी अपनी सफाई पेश कर चुकीं तव आप अपने को सँभाल न सके । आप बड़ी गंभीरता के साथ वोले ।
मन बोल्यो तिहँ ठौर, अरे फरस संसार में । तू , भूरख सिर मौर, कहा गर्व भूठो करै । इक अंगुल परमान, रोग छानवें भर रहै । कहा करै अभिमान, तो सम मूरख कौन है ॥
मन राजा मन चक्रपति, मन सव को सरदार । मन सो बड़ो न दूसरो, देखो इह 'संसार॥ मन इन्द्रिन को भूप है, इन्द्रिय मन के दास ।
ज्ञान,ध्यान, सुविचार सब, मन त होत प्रकाश ॥ - पाँचों इन्द्रिएँ और मन जब अपनी अपनी महिमा वर्णन कर चुके तब मुनि महराज क्या फैसला देते हैं इसको पढ़कर समझिए ।
तवं बोले मुनिराय यों, मन क्यों गर्व करत । तेरी कृपा कटाक्ष से, मनुज नर्क उपजंत ॥ इन्द्रिय तौ वैठी रहै, तू दौरे निशदीश । छिन छिन वाँधै कर्म को, देखत है जगदीश ॥
भोरो परयो रस नाक के रे, कमल मुदित भये रैन । केतकी. 'काँटन बाँधियो..रे, कहूँ न पायो चैन । • काननाकी संगति किये रे, मृग मारयो वन माँहि ।
अहिपकर यो रस कान केरे, कितहुँ, छूट्यो नाँहि ॥