Book Title: Jain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Jain Sahitya Sammelan Damoha

View full book text
Previous | Next

Page 192
________________ प्राचीन हिन्दी जैन कवि रागी पी देख देव ताकी नित कर, सेव ऐसो है अवेव ताको कैसे पाप खपनो। राग रोग क्रीड़ा संग विपै की उठे तरंग, ताही में अभंग रैन दिन कर जपनो॥ प्रारति औ रौद्र ध्यान दोऊ किए भागेवान, ____एते पै चहै कल्यान देके दृष्टि ढपनो। अरे मिथ्याचारी तै विगारी मति गति दोऊ, ___हाथ लै कुल्हारी पाँय मारत है अपनो ॥ हे अविवेकी ! तू राग द्वाप से भरे हुए देवों की हमेशा सेवा करता है तो तेरा पाप कैसे कट सकता है। राग के रोग में विपय की तरंग उठती है और तू उसकी अभंग जाप जपता है। तूने आर्त और रौद्र ध्यान को अपना नेता बनाया है और आँख वंद कर अपना कल्याण चाहता है। , अरे मिथ्याचारी! तूने अपनी मति और गति दोनों , विगाड़ डाली तू हाथ में कुल्हाड़ी लेकर अपने पैर में मारता है। जिन धर्म की महत्ता का वर्णन सुनिए । पक्षपात से नहीं निप्पत्तता सहित । धन्य धन्य जिन धर्म, जासु में दया उभयविधि । धन्य धन्य जिनधर्म, जासु महिं लखै आप निधि ॥ धन्य धन्य जिन धर्म, पंथ शिव को दरसावै । धन्य धन्य जिन धर्म, जहां केवल पदपावै ॥ पुनिधन्यधन्य जिनधर्मयह, सुख अनंत जहाँ पाइए। भैया त्रिकाल निज घट विपै, शुद्ध दृष्टि धर ध्याइए॥ जैनधर्म धन्य है। जिसमें दो तरह (आत्म रक्षा और और प्राणी रक्षा) की दया वतलाई है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207