Book Title: Jain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Jain Sahitya Sammelan Damoha

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Page 174
________________ प्राचीन हिन्दी जैन कवि हृदय से मिथ्या भ्रम का भाव नहीं हटा है और न कामदेव की इच्छा ही कम हुई है विषय सुख के साथ रहकर उसी की रटन लगाए हुए वे सब व्यर्थ ही हाथ पटकते हैं । १६२ ब्रह्माजी की सृष्टिको चोर चुरा ले गए हैं वे उसकी चारों ओर खोज कर रहे हैं । करना सवन के करम को कुलाल जिम, जाके उपजाये जीव जगत में जे भये । सुर तिरजंच नर नारकी सकल जन्तु, रच्यो ब्रम्हrs aa रूप के नये नये ॥ तासों वैर करवे को प्रगटो कहाँ सों चाय, ऐसे महावली जिंह खातर में न लये । दृढ़े चहुँ ओर नाहिं पावै कहूं ताको ठौर, ब्रह्मा जू की सृष्टिको चुराय चोर ले गये ॥ कुम्हार की तरह सभी प्राणियों के कर्म की रचना करने वाला और जिसके पैदा किए ही संसार में जीव हुए हैं। देव, तिर्यंच मनुष्य, नारकी आदि सभी जीवों को अनेक तरह के नए नए रूप देकर जिसने ब्रह्मांड को बनाया है । उससे द्वेष रखने वाला, और अपने आगे किसी को भी न समझने वाला महाबली कहाँ से पैदा हो गया । चारों ओर दृढ़ते हैं परन्तु कहीं भी पता नहीं लगता ब्रह्मा जी की सृष्टि को चोर चुरा ले गए ? सुद्धि को किस प्रकार सुन्दर शिक्षा दी जा रही है । चेतन की देहरी, न कीजे यासों नेहरी, ये चौगुन की गेहरी परम दुख भरी है । याही के सनेह री न आवै कर्म छेहरी, सुपावें दुःख तेहरी जे याकी प्रीति करी है । J

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